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खण्ड ]
:: प्राचीन गूर्जर-मन्त्री - वंश और महाबलाधिकारी दंडनायक विमल ::
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उसी स्थान पर जहाँ मूर्त्ति प्रकट हुई थी, एक अति विशाल एवं शिल्पकला का ज्वलंत उदाहरणस्वरूप जिनप्रासाद बनवाकर उक्त प्रतिमा को उसमें प्रतिष्ठित करने की सुसम्मति दी । विमलशाह आचार्यश्री की सम्मति "पाकर बड़ा ही आनन्दित हुआ और घर आकर अपनी पतिपरायणा, धर्मानुरागिणी स्त्री से सर्व घटना कह सुनाई । दोनों स्त्री-पुरुषों ने विचार किया कि संतान प्राप्ति की इच्छा तो एक मोह का कारण है और सन्तान कैसी निकले यह भी कौन जानता है, परन्तु जिनशासन की सेवा करना तो कुल, ज्ञाति, देश एवं धर्म के गौरव को बढ़ाने वाला है। ऐसा विचार कर विमलशाह ने उक्त स्थान पर श्री आदिनाथ - बावन जिनालय बनवाने का दृढ़ संकल्प कर लिया । जैसलमेर के श्री सम्भवनाथ मन्दिर की एक बृहद् प्रशस्ति में लिखा है कि खरतरविधिपक्ष के आचार्य श्रीमद् वर्धमानसूरि के वचनों से मन्त्री विमल ने अर्बुदाचल पर जिनालय बनवाया । विमलवसहि की प्रतिष्ठा के अवसर “पर भिन्न २ गच्छों के ४ चार आचार्य उपस्थित थे, ऐसा तो माना जाता है ।
वह स्थान जहाँ पर आदिनाथ - जिनालय बनवाने का था, वैष्णवमती ब्राह्मणों के अधिकार में था । दंडनायक विमल जैसा धर्मात्मा महापुरुष भला ब्राह्मणों के स्वत्व को नष्ट करके कैसे अपनी इच्छानुसार उक्त स्थान को उपयोग में लाने का और वह भी धर्मकृत्य के ही लिये कैसे विचार करता । उक्त स्थान को उसने चौकोर स्वर्णमुद्रायें बिछाकर मोल लिया । इस कार्य से विमल की न्यायप्रियता, धर्मोत्साह जैसे महान् दिव्य गुण सिद्ध 'चन्द्रकुले श्री खरतर विधिपक्षे श्रीवर्धमानाभिधसूरि राजो जाताः क्रमादर्बु' दपर्वताग्रे । मंत्रीश्वर श्री विमलाभिधानः प्राची करद्यद्वचनेन चैत्यं' ॥१॥ जै० ले० सं० भा० ३. पृ० १७ ले० २१३६ (१०)
उक्त घटना को विमलशाह सम्बन्धी ग्रंथों में निम्न प्रकार वर्णित किया गया है:
एक रात्रि को आरासण की अम्बिकादेवी ने विमलशाह को स्वप्न में दर्शन दिया और वरदान मांगने को कहा । विमलशाह ने दो वरदान मांगे। एक तो यह कि उसके पराक्रमी सन्तान उत्पन्न होवे, द्वितीय यह कि वह अर्बुदगिरि पर जगद्-विख्यात श्रादिनाथ जिनालय बनवाना चाहता है, उसमें वह सहायभूत रहे। देवी ने उत्तर में कहा कि वह उसका एक विचार पूर्ण कर सकती है। इस पर विमलशाह ने अपनी पतिपरायण एवं धर्मानुरागिणी स्त्री की संमति लेकर अम्बिका से प्रार्थना की कि वह आदिनाथ - जिनालय बनवाना चाहता है | देवी ने तथास्तु कह कर उक्त कार्य में पूर्ण सहायता करने का अभिवचन दिया ।
यह अनुभवसिद्ध है कि मुहुर्मुहु हम जिस बात का अधिक चिंतन करते हैं, तद्संबन्धी स्वप्न होते ही हैं । अतः विमलशाह को स्वप्न का आना असत्य अथवा अस्वाभाविक कल्पना मानना मिथ्या है। प्राचीन समय के लोगों में अपने दृष्ट स्वप्मों में पूर्ण विश्वास होता था और वे फिर उसी प्रकार वर्तते भी थे । अनेक प्राचीन ग्रंथ इस बात की पुष्टि करते हैं ।
प्र० को० ४७, पृ० १२१ (१० प्र०)
मूर्ति सम्बन्धी घटना इस प्रकार है कि जब विमलशाह का विचार अर्बुदगिरि पर आदिनाथ - जिनालय के बनवाने का निश्चित हो गया तो उसने कार्य प्रारम्भ करना चाहा, परन्तु वैष्णवमतानुयायियों ने यह कह कर अड़चन डाली कि अर्बुदगिरि आदिकाल से वैष्णवतीर्थं रहा है, अतः उसके ऊपर जिनालय बनवाना उसके धर्म पर आघात करना है। इस पर फिर विमलशाह को स्वप्न हुआ। कि अमुक स्थान पर भगवान् श्रादिनाथ की प्रतिमा भूमि में दबी हुई है, उसको बाहर निकालने से अर्बुदगिरि पर जैनमन्दिर पहिले मी सिद्ध हो जायगा । दूसरे दिन विमलशाह ने उक्त स्थान को खुदवाया तो भगवान् आदिनाथ की अति प्राचीन भव्य प्रतिमा निकली और इस प्रकार अर्बुदगर जैनतीर्थ भी सिद्ध रहा ।
इस बाधा के हट जाने पर जब मन्दिर बनवाने का कार्य प्रारम्भ किया जाने को था तो वैष्णव ब्राह्मणों ने यह आन्दोलन किया कि वह भूमि जहाँ मन्दिर बनवाया जा रहा है, उनकी है । अतः अगर वहां मन्दिर बनवाना अभिष्ट हो, तो उक्त जमीन को चौकोर स्वर्ण-मुद्राएँ बराबर बराबर faछा कर मोल लेवें । विमलशाह ने ऐसा ही करके उक्त भूमि को मोल ली ।