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:: प्राग्वाट इतिहास ::
[ द्वितीय
• भारतवर्ष के इतिहास में दशवीं एवं ग्यारहवीं शताब्दी उस समय के छोटे-बड़े राजाओं में चलती प्रतियोगिता एवं प्रतिद्वंद्वताओं के लिये अधिक कुप्रसिद्ध है, जिसके परिणामस्वरूप भारतवर्ष पर यवनों के आक्रमण हुये हैं । इन शताब्दियों में समूचा उत्तर-भारत धीरे २ यवन- आक्रमणकारियों से पद्दलित हुआ, अपने गौरव एवं मान से भ्रष्ट हुआ। ऐसे विषम एवं महाविपत्तिपूर्ण समय में कोई जो लगातार चार महापराक्रमी सम्राटों का महामात्य रहा हो वह कितना वौर, योग्य एवं दृढ साहसी व बुद्धिमान होगा और वह भी फिर गूर्जर भूमि जैसी सम्पत्ति एवं बैभवपूर्ण धरा काः ।
सम्राट् चामुण्डराज की महामात्य वीर पर अधिक प्रीति रही। इसका कारण यह था कि चामुण्डराज की अधिक हो जाने पर भी उसको पुत्र की प्राप्ति नहीं हुई । एक समय महाप्रभावक श्राचार्य वीरगणि हिलपुरपत्तन में पधारे । सम्राट् चामुण्डराज श्राचार्य वीरगणि का बड़ा भक्त था । एक दिन सम्राट् चामुण्डराज ने महामन्त्री वीर को कहा कि मेरे तुम्हारे जैसा महात्मा महामात्य है और महाप्रभावक वीरसूरि जैसे गुरु हैं, फिर भी
सोडवलेली मेहलाण, गज देषी राथ्यु हराए । सांडथलू' तव किद्ध पसाइ, लोक भइ न वराशिङ राइ ॥४५॥ चिहुँ दिशि मुहुत हिरनि चड्यो, टंकसालि सोनैया पड्या । टंकसाल कीधी आपणी, राजन मया करि छ घणी ॥४६॥ - वि० प्र० ख० ३ पृ० १००-१०२. यह पूर्व ही चरणपंक्ति में लिखा जा चुका है कि चावडावंश के सम्राटों के नामों में तथा उनके शासनारूढ़ होने के संयतों में भ्रम है । परन्तु यह तो सिद्ध है कि प्रथम चालूषयसम्राट् मूलराज वि० सं० ६६८ से शासन करने लगा था ।
रासमाला
१ - वनराज
८०२-८६२ २ - योगराज ८६२ - ८६७
३ - क्षेमराज ८६७-६२२
४ - भुवड़ (बिथु ) ६२२-६५१. ५- वैरीसिंह (विजयसिंह ) ६५१-६७६.
६ - रत्नादित्य ( रावतसिंह ) ६७६-६६१ ७- सामंतसिंह
६६१-६६८ १६.६
शासन-काल ( विक्रम संवतों में ) प्राचीन भारतवर्ष का इतिहास १- वनराज ८२१-८३६ २ - चामुंडराज ८३.६-८६२ ३- योगराज ८६२ - ८६१
८६१-८६४
४ - रत्नादित्य ५-बैरीसिंह ६- क्षेमराज ६०५-६३७
८६४-६०५
७ - चामुंडराज ६३७-६६४
८- घाघड़
E-भूभूट
६६५-६६२ ६६३.२०१७
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प्रबन्ध चिन्तामणि १ - वनराज ८०२-८६२ २- योगराज ८६२ ८६.७. ३- क्षेमराज ८६७-६२२ ४-भूवड...... ६२२-६५१
५- वैरीसिंह ६५१-६७६. ६-रत्नादित्य् ६७६-६६१ ७ - सामंतसिंह ६६१-६६८
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रा० मा० भा० १ पृ० ३६, ३७, ३८.
प्र० चि० पृ० १४, १५. (वनराजादि प्रबन्ध )
सो चालुक्कभिरिमुलराय-चामुण्डरायरज्जेंसु । वल्लहराय-राराहिवदुल्लहरायाणमवि काले || निच्च पि एक्कमंती जाओ पज्जंतचरियचारित्तो । सिरिमूलरायनश्व इरज्जालयं कुरो वीरो ॥ - D. C. M. P. ( G. O. V.no. LXXVI.) (चन्द्रप्रभस्वामी - चरित्र) P. 254. श्रीमन्मूलनरेन्द्रसनिधिसुधानि दसेिकित प्रज्ञापात्रमुदात्तदान चरितस्तसूनुरासीद (द्व) रः ||४|| निजकुल कमल दिवाकर कल्पः कार्थसार्थक कल्पतरु | श्रीमद् वीरमहत्तम इति यः ख्यातः क्षमावलयेः ।।५।।
- श्र० प्र० जै० ले० स० भा० २ लेखांक ५.१