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:: प्राग्वाट - इतिहास ::
( द्वितीय
लेखों में तो केवल प्रतिष्ठा - संवत् और बिंत्र का नाम ही मिलता है । फिर प्रतिष्ठाकर्ता आचार्य का नाम दिया जाने लगा और इस प्रकार बढ़ते २ प्रतिमा बनवाने वाले श्रावक का नाम और उसके पूर्वजों तथा परिवार जनों के नाम भी दिये जाने लगे। परन्तु इन भावनाओं की उत्पत्ति हुई सामाजिक संगठन के शिथिल पड़ने पर, अपने २ वर्ग और फिर अपने २ कुल के पक्ष मण्डन पर । उन शताब्दियों में ज्ञातिवाद सुदृढ़ और प्रिय बन चुका था और जैनकुल भी उसके प्रभाव से विमुक्त नहीं रहे थे । अतः यह सम्भव है कि जैनकुल, जैनसमाज के जिस २ वर्ग के पक्ष के थे, उस २ वर्ग के नाम से अपने २ का कहने और लिखने लगे हों । तेरहवीं शताब्दी के प्रारम्भ में इन शब्दों का प्रयोग एक दम बढ़ने लगा — इससे यह सिद्ध होता है कि जैनसमाज के उक्त तीनों वर्गों में उस शताब्दी से ही अन्तर पड़ना प्रारम्भ हुआ है और अपना २ स्वतन्त्र अस्तित्व एवं कार्य दिखाने की भावनायें प्रबल हो उठी हैं । यह ही प्राग्वाट, सवाल और श्रीमालवर्गों का स्वतन्त्र अस्तित्व स्थापित करने की बात हुई ।
पोसीनातीर्थ के सं० १२०० के लेख में 'बृहदशाखीय' शब्द इस बात को सिद्ध करता है कि उस शताब्दी में 'बृहद्शाखा' विद्यमान थी, अतः यह भी सिद्ध हो जाता है कि लघुशाखा भी थी । यह जनश्रुति कि वस्तुपाल तेजपाल के प्रीतिभोज पर बृहद्शाखा और लघुशाखा की उत्पत्ति हुई मनगढ़ंत और निराधार प्रतीत होती है । उक्त मंत की पुष्टि में मुनि श्री ज्ञानसुन्दरजी ने कई एक प्रमाण दिये हैं; परन्तु उनमें अधिकांश १८, १६ वीं शताब्दियों के हैं और कुछ प्रामाणिक और मनगढ़ंत हैं। श्री अगरचन्द्रजी नाहटा, बीकानेर भी इस मत के विरोध में अपने 'दस्सा-सा भेद का प्राचीनत्व' लेख में लिखते हैं, ' दस्सा बीसा भेद के प्राचीनत्व को सिद्ध करने वाला प्राचीन प्रमाण है खरतर जिनपतिसूरिरचित 'समाचारी' । उक्त समाचारी की रचना वि० सं० १२२३ और १२७७ के बीच में हुई है। सूरिजी सं० १२७७ में स्वर्गवासी हुये ।' यह अवश्य सम्भव हो सकता है कि उक्त दोनों भ्राताओं ने कई बार बड़े २ संघभोज दिये थे; जिनमें अगणित ग्रामों, नगरों से श्रीसंघ और सद्गृहस्थ सम्मिलित हुये थे, किसी एक में कोई कारण से झगड़ा उत्पन्न हो गया हो और उस पर समाज में तनातनी अत्यधिक बढ़ चली हो और लघुशाखा वस्तुपाल के पक्ष में रही हो और वृद्धशाखा विरोध में और तब से ही वे अधिक प्रकाश में आई हों, अधिक सुदृढ़ और निश्चित (Conformed ) बन गई हों । परन्तु यह श्रुति कि लघुशाखा और वृद्धशाखा का जन्म ही वस्तुपाल तेजपाल द्वारा दिये गये किसी प्रीतिभोज में झगड़ा उत्पन्न हो जाने पर हुआ, पोसीना के वृद्धशाखा वाले सं० १२०० के लेख से झूठी ठहरती है; क्योंकि संवत् १२०० में तो वस्तुपाल तेजपाल का जन्म ही नहीं था और फिर इनके प्रीतिभोज तो वि० सं० १२७३-७५ के पश्चात् प्रारम्भ हुये थे और वृद्धशाखा इनके जन्म के कई वर्षों पूर्व ही विद्यमान थी । बात तो यह है कि जब जैनसमाज के उक्त तीनों वर्ग प्राग्वाट, ओसवाल और श्रीमाल अपने २ वर्ग का स्वतन्त्र अस्तित्व स्थापित करना चाहने लगे और उस दिशा में प्रयत्न करने लगे तथा उसके कारण परस्पर होते कन्या - व्यवहार में स्वभावतः बाधा उत्पन्न होने लगी अथवा कन्या - व्यवहार अपने २ वर्ग में ही करने की भावनायें जोर पकड़ने लगीं, तब समाज के कुछ लोगों ने इन भावनाओं को मान नहीं दिया और अगर उन पर जैनसमाज के अन्दर के अन्य वर्गों में कन्या - व्यवहार करने पर प्रतिबन्ध लगाये तो उनको स्वीकार नहीं किया और बराबर पूर्ववत् कन्या- व्यवहार चालू रक्खा; ऐसे उन कुछ लोगों का पक्ष थोड़ी संख्या में होने के कारण
नाहटाजी का उक्त सारा लेख पठनीय है।