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खण्ड ]
:: प्राग्वाट अथवा पोरवालज्ञाति और उसके भेद::
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मूल्यांकन किया जाने लगा। इस वातावरण में लघुसन्तानीय अथवा लघुशाखीय को दस्सा और बृहद्शाखीय अथवा बृहद्सन्तानीय को बीसा कहने की प्रथा पड़ गई और वह निकटतम भूत में उत्पन्न हुई के कारण आज भी प्रचलित है । परन्तु शिलालेखों में ताम्रपत्रों में, प्रशस्ति-लेखों में, इसका कहीं प्रयोग देखने में नहीं आया है। प्राचीन से प्राचीन संवत्, जिनमें, ज्ञातिबोधक एवं शाखाबीवक शब्दों का प्रयोग प्रारम्भ हुआ है, प्रमाण की दृष्टिं . से नीचे दिये जाते हैं।
'प्राग्वाट' शब्द का सर्वप्राचीन प्रयोग सिरोही-राज्य में कासंद्रा नामक ग्राम के जिनालय की देवकुलिकाओं में अनेक लेख हैं, उनमें से एक लेख वि० सं० १०६१ का है, उसमें हुआ है। उस लेख में लिखा है कि भिन्नमाल से निकला हुआ प्राग्वाटज्ञाति का वणिकवर, श्रीपति, लक्ष्मीवन्त, राजपूजित, गुणनिधान, बन्धुपद्मदिवाकर गोलंच्छी (१) नामक प्रसिद्ध पुरुष था ।१ उसके जज्जुक, नम्म और राम तीन पुत्र थे। उनमें से जज्जुक के पुत्र वाम ने संसार से भयभीत होकर मुक्ति की प्राप्ति के अर्थ इस जिनालय का निर्माण करवाया । वि० सं० १०६१ ।
'उकेशज्ञाति' और 'बहद्शाखा' शब्दों का प्रयोग श्री बुद्धिसागरजी द्वारा संग्रहित धातु-प्रतिमा लेखों वाली पुस्तक 'श्री जैन-धातु-प्रतिमा-लेख-संग्रह भाग १' के पोसीनातीर्थ के लेखों में लेखांक १४६८ में वि० सं० १२०० में सर्वप्राचीन हुआ मिलता हैं। लेख का सार यह है कि सं० १२०० वर्ष की वैशाख कृष्णा २ के दिन श्री सावलीनगर में रहने वाली उकेशज्ञातीय बृद्धशाखा ने श्री अजितनाथबिंब को प्रतिष्ठित करवाया ।२
.:. 'श्रीमाल' शब्द का भी सर्वप्राचीन प्रयोग मुनि श्री जयंतविजयजी द्वारा संग्रहित 'श्री अर्बुद प्राचीन-जैन-लेखसंदोह भाग २' के लेखांक १२३ में हुआ है। लेख का सार यह है कि श्रीमाल-ज्ञातीय सेठ आसपाल और उसकी स्त्री आसदेवी; इन दोनों के श्रेयार्थ श्राविका श्रासदेवी ने इस प्रतिमा को भराया, जिसकी प्रतिष्ठा सं० १२२६ अथवा १२३६ के वैशाख शुक्ला १० को श्री धर्मचन्द्रसरि ने की ।३
उक्त लेखों के सारों से यह भलीविध सिद्ध हो जाता है कि विक्रम की आठवीं, नवीं, दशवीं शताब्दियों तक 'प्राग्वाट, ओसवाल, श्रीमाल' जैसे ज्ञातिबोधक शब्दों का प्रयोग करने की प्रथा ही नहीं थी। प्राचीनतम *दस्सा. घीसा के पर्यायवाची नाम लघु, वृद्धशाखा भी है। (श्रीमाली जाति नो वणिक भेद) :::... :
-जे० सा० सं० इति पृ०३६० प्रा० ० ले०सं० भाग २ लेखांक ४२७ पृ०:२६१ (कासंद्रा के जिनालय में)... १-श्री-भिल्लमाल निर्यातः प्राग्वाटः वणिजा: वरः): श्रीपतिरिव लक्ष्मीयुग्गोलच्छी राजजितः।।..
श्राकरो गुणरत्नाना बन्धुपद्मदिवाकरः । जज्जुकस्तस्य पुत्रः स्यात् नम्मरामौ ततोऽपरौ।। 'जज्जुसुतगुणाढयेन वामनेन भवाद्भयम् ॥ दृष्ट्वा चक्रे गृहं जैनं मुक्त्यै विश्वमनोहरम् ।। संवत् १०६१ जै० धा०प्र० ले० सं०भा०१ लेखांक १४६८'पृ० २५५ (सांबली-पोसीनातीर्थ में): २-'सं० १२०० वैशाख बदी २ दिने श्री साबलीनगरे वास्तव्य उकेशज्ञातीय वृद्धशासा श्री अजितानाथबिंब कारोपित प्रतिष्ठितं ।' अ९ प्रा० ० ले० सं०भा०.२ लेखांक ५२३ पृ० ५.३२ .... ::. :३-'सं० १२२६ (३६) वैशाख शु० १० श्रीमालीय व्य० आसपाल भार्या श्रासदेवी । अनयोः पुण्यार्थ गुनासादि."(तथा) श्रासदेव्या बिंबं कारितं प्रतिष्ठितं श्री धर्मचन्द्रसरिभिः ॥