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हलके जन्म का मिश्रित संपन और दिन तो संभवतः अद्यावधि कोई भी पुरातच एवं इतिहासवेत्ता के बान में अब तक नहीं आ पाया है, परन्तु जहाँ तक जैनसमाज के अंतर्गत कर्मों का सम्बन्ध है इतना अवश्य निश्चित है कि अब वर्तमान् जैनकुल विक्रम की आठवीं शताब्दी में और उसके पश्चात्वर्ती वर्षों में बने हैं, तो ये शाखायें भी विक्रम की आठवीं शताब्दी के पश्चात् ही उत्पन्न हुई समझी जानी चाहिए। प्राग्वाटज्ञाति का ऐतिहासिक, परंपरित एवं विशेष सम्बन्ध ओसवाल, श्रीमालज्ञातियों से रहा है और है और इन तीनों में ये ही छोटी, बड़ी शाखायें विद्यमान हैं । यह भी निश्चित है कि इन तीनों वर्गों में ये दोनों शाखें एक ही कारण से, एक ही समय पर और एक ही क्षेत्र अथवा स्थान पर उत्पन्न हुई हैं और फिर पश्चात् के वर्षों में बढ़ती रही हैं, इसका कारण यह है कि तीनों एक ही जैनसमाज की प्रजा हैं और इन तीनों वर्गों का प्रायः धर्म एक रहा है और आज भी है तथा तीनों के प्रतिबोधकगुरु, धर्माचार्य, तीर्थ, धर्मग्रंथ एक ही हैं और परस्पर बेटी-व्यवहार भी रहा है।
विशेष फिर यह भी है कि प्राग्वाटज्ञाति के भीतर और वैसे ही प्रोसवाल और श्रीमाल-ज्ञातियों के भीतर रही हुई इन दोनों शाखाओं के कुलों के गोत्र परस्पर मिलते हैं और व्यक्ति परस्पर एक-दूसरे को भाई कहते हैं और लिखते हैं। भोजन-व्यवहार सम्मिलित होता है और दोनों शाखाओं के व्यक्ति एक ही थाली में भोजन भी करते हैं । कहीं २ नहीं भी होता है, तो वह ब्राह्मणप्रभाव के कारण है। इतनी समानतायें तो यही सिद्ध करती हैं कि छोटे-बड़े साजन जब गोत्रों में, धर्म में और ऐसे ही सारे अन्य अंगों में मिलते हैं तो दोनों में जो भेद पड़ गया है, वह ऊँच, नीच होने के कारण अथवा खान-पान में अन्तर पड़ने के कारण नहीं, वरन् किसी समय किसी सामाजिक समस्या, प्रश्न अथवा घटना के कारण है, जिसने उनको दो दलों अथवा दो शाखाओं में बुरी तरह विभाजित कर दिया है और धीरे २ वह पूरे वर्ग में प्रायः फैल गया है अथवा फैला दिया गया है और पक्का अथवा सुदृढ़ होता रहा है । कुछ ही कुल ऐसे हैं, जिनमें दो शाख नहीं पड़ी हैं और वे बृहद्शाखीय कहे जाते हैं ।
___ आजकल लघुसन्तानीय के लिए इस्सा और बृहद्सन्तानीय के लिये बीसा शब्दों का ही प्रयोग अधिकतर होता है। एक दूसरी शाख भी एक दूसरी के लिये इनका ही प्रयोग करती है और वह अपने को भी लघुशाखा हुई तो दस्सा और बृहद्शाखा हुई तो बीसा कहती है। यह प्रयोग भी आजकल से नहीं होने लगा है । इसको भी सैकड़ों वर्ष हो गये हैं। परन्तु मेरे मत से है यह मुसलमानी राज्यकाल में चला हुआ। एक बीघा बीस विस्वा का होता है । दस्सा से प्रयोजन मूल्य, आदर, प्रमाण, जो कुछ भी ऐसा समझा जाय दश विस्था और बीसा से प्रयोजन वीस विस्वा से है और अर्थ भी ऐसे ही लगाये जाते हैं। लोग इसका यह आशय लेते हैं कि दस्सावर्ग बीसावर्ग से कुल की श्रेष्ठता में आठ आना भर है। ऐसा उनका कहने का एक ही आधार यह है कि दश विस्वा बीस विस्वा का आधा होता है. अतः दस्सावर्ग बीसावर्ग से श्रेष्ठता में आधा है। परन्तु यहाँ तो यह अनुमान बैठाया हुआ अथवा देखा-देखी निकाला हुआ अर्थ है और अनैतिहासिक है। इसका ऐतिहासिक आधार नहीं है। बात यह है कि मुसलमानों के राज्यकाल में क्षेत्रों का माप बीघा, विस्वा और विस्वान्सियों पर होता था और यह ही पद्धति समस्त भारत भर में फैल गई थी। यह पद्धति इतनी फैली और इतनी बढ़ी अथवा प्रिय हुई कि साधारण से साधारण अनपढ़ भी इस पद्धति से पूरा २ परिचित हो गया और जैसे यह वस्तु चार आनी, आठ आनी अच्छी है, अमुक बारह आनी अच्छी है, उस ही प्रकार विस्वाओं पर अनेक वस्तुओं का बोलचाल में