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:: प्राग्वाट - इतिहास ::
[ द्वितीय
धर्म पनप रहा था, अतः इस शाखा ने वैष्णवमत स्वीकार कर लिया। प्रसिद्ध आर्य-समाज- प्रचारक श्री रामचरन 'मालवीय' भर्थनानिवासी मुझको अपने ता० ३०-१२-१६५१ के पत्र में अपनी ज्ञाति को पौरवालज्ञाति की शाखा होना, इसके पूर्वजों द्वारा जैनधर्म का पालन करना आदि कई एक मिलती-जुलती बातें लिखकर अन्त में स्वीकार करते हैं कि पुरवार और पौरवाल एक ही ज्ञाति हैं ।
पुरवारज्ञाति का नहीं कोई लिखा हुआ इतिहास है और नहीं कोई साधन-सामग्री ही । हमारे अथक एवं सतत प्रयत्नों के फलस्वरूप प्राप्त हुई है कि जिसके आधार पर कुछ भी तो वर्णन दिया जा सके । अतः प्राग्वाट इतिहास में इस ज्ञाति का इतिहास नहीं गूँथा गया है ।
परवारज्ञाति
इस ज्ञाति के कुछ प्राचीन शिलालेखों से सिद्ध होता है कि 'परवार' शब्द 'पौरपाट' 'पौरपट्ट' का अपभ्रंश रूप है । 'परवार', 'पौरवाल' और 'पुरवार' शब्दों में वर्णों की समता देखकर बिना ऐतिहासिक एवं प्रामाणित आधारों के उनको एक ज्ञातिवाचक कह देना निरी भूल है । कुछ विद्वान् परवार और पौरवालज्ञाति को एक होना मानते हैं, परन्तु • वह मान्यता भ्रमपूर्ण है । पूर्व लिखी गई शाखाओं के परस्पर के वर्णनों में एक दूसरे की उत्पत्ति, कुल, गोत्र जन्मस्थान, जनश्रुतियों, दन्तकथाओं में अतिशय समता है, वैसी परवारज्ञाति के इतिहास में उपलब्ध नहीं है । यह ज्ञाति समूची दिगम्बर जैन है । यह निश्चित है कि परवारज्ञाति के गोत्र ब्राह्मणज्ञातीय हैं और इससे यह सिद्ध है कि यह ज्ञाति ब्राह्मण ज्ञाति से जैन बनी है प्राग्वाट अथवा पौरवाल, पौरवाड़ कही जाने वाली ज्ञाति से यह
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*सम्मेलन के पश्चात् इस ज्ञाति के इतिहास की सामग्री प्राप्त करने के लिए जी तोड़ प्रयत्न किया गया । एक पत्र पर १६ प्रश्नों को छपवा कर इस ज्ञाति के पण्डित, विद्वान्, अनुभवी पुरुषों के पास में वे उत्तरार्थ भेजे गये । यह समस्त कार्य मानदमंत्री श्री जयकान्त पुरवार ने अपने द्वारा सम्पादित होते पत्र 'पुरवार बन्धु' के सहारे और सहज बना दिया था । 'पुरवार बन्धु' अमरावती में मेरा 'महाजनसमाज और उसके मूलपुरुषों का धर्म' नामक लेख वर्ष २ क २ सितम्बर सन् १६५१ पृ० ३३ पर प्रकाशित हुआ था। इसी अंक के पृ० १८ से २० पर भी श्री जयकान्तजी का सम्पादकीय लेख भी पुरवारज्ञाति के ऊपर 'जातीय इतिहास की खोज में' शीर्षक से प्रकाशित हुआ है । पृ० १८, १६ पर वे लिखते हैं, 'पुरवार - वैश्यदर्पण' नामक पुस्तक के पृ० ६ से लेकर १५ तक पुरवारों की उत्पत्ति से सम्बन्ध रखते हैं। इसमें लिखा है कि हम लोग मारवार-बीकानेर से आये, क्योंकि अधिकतर वैश्यज्ञातियाँ उसी तरफ से आई।
अतिरिक्त इसके नीचे लिखी बातें भी मननीय हैं, जो इसी लेख में लिखी गई हैं:१ - 'हम लोग राजा पुरुखा (पुरु) के वंशज हैं अतः पुरवार कहलाये ।"
२ - 'हमारे पूर्वज पूर्व दिशा से आये और अतः पुरवा कहलाये ।'
३- 'कुछ लोगों के कथनानुसार हम लोगों का उद्गम राजस्थान का भिन्नमाल गाँव है ।'
४- 'कुछ सज्जनों के कहने के अनुसार हम लोग गुजरात में पाटन नामक नगर के रहने वाले हैं ।"
उक्त सारे मत और सारी शंकायें संकेत करती हैं कि पौरवालज्ञाति की पुरवारज्ञाति शाखा है, जो विक्रम की पन्द्रहवीं शताब्दी में अलग पड़ गई है। इतना प्रयत्न करने पर भी दुःख है कि इस ज्ञाति की एक पृष्ठ भर भी उत्पत्ति, विकास-सम्बन्धी साधन-सामग्री प्राप्त नहीं हो सकी।