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:: प्राग्वाट अथवा गौरव और उसके भेद ::
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चावा चाहिये, नहीं तो मैं समस्त वैज्ञाति को कुचलवा दूंगा । राजा टोडरमल आखों में बड़े चतुर थे और सम्राट अकबर के प्रति विश्वासपात्र एवं प्रेमी मित्रों में से थे। बड़ी चतुराई से उन्होंने सम्राट को समयान कि शीघ्रता करने से लाभ कम और हानि अधिक होती है। लड़की का पिता कोई शक्तिशाली सम्राट अथवा राजा नहीं है, जो सम्राट की इच्छा को सफल नही होने देवे । राजा टोडरमल ने स्वयं स्वीकार किया कि सम्राट एक माह की अवधि प्रदान करें और इस अन्तर में वह लड़की के माता-पिता तथा ज्ञाति के लोगों को समझा कर डोला दिलवा देगा और इस प्रकार सम्राट बहुत बड़ी बदनामी अथवा कलह की उत्पत्ति से बच जावेगा ।
राजा टोडरमल ने घर आकर कन्या के पिता और ज्ञाति के विश्वासपात्र पुरुषी को घुलवा करके सम्राट का जो दृढ़ निश्चय था, वह सुना दिया। यह श्रवण करके कन्या के पिता एवं अन्य सर्व पुरुषों का मुँह उतर गया और कोई उत्तर नहीं सूझ पड़ा। राजा टोडरमल भी अपनी वैश्यसमाज के गौरव को धक्का लगता देखकर गम्भीर चिन्तन में पड़ गये। अन्त में उन्होंने अपने ही प्राणों को जोखम में डालने का दृढ़ निश्चय करके उनसे कहा कि सम्राट से उन्होंने डोले के लिये एक माह की अवधि ली है। अब वे दिल्ली छोड़कर इस अन्तर में कहीं अन्यत्र जाकर उस लड़की और उस लड़की के कुल को छिपा सकते हैं तो ज्ञाति अपमानित होने से बच सकती है बस फिर क्या था । लघुपच के जितने भी घर दिल्ली में बसते थे, वे सर्व संगठित होकर प्राणों से प्रिय ज्ञाति के गौरव की रक्षा करने के लिये अपने धन-माल की परवाह नहीं करके दिल्ली का तुरन्त त्याग करके निकल बले । कुछ कुल बीकानेर-राज्य के जंगली प्रदेशों में, जिनमें अधिक भाग रेतीला है जाकर छिपे और कुछ कुल लखनऊ, महमूदाबाद, सीतापुर, कालपी आदि नगरों में जाकर बस गये । जो बीकानेर-राज्य के जंगली प्रदेश में बसे धीरे २ जांगड़ा कहे जाने लगे। इस कथा में कितना सत्य है और इस घटना में वर्णित कथानक पर 'जांगड़ा ' शब्द की उत्पत्ति कहाँ तक मान्य है- तोलना और कहना अति ही कठिन है । इतना अवश्य है कि अभी लखनऊ, महमूदाबाद, सीतापुर के जिलों में और उधर के अन्य नगरों' में 'पुखार' कही जाने वाली ज्ञाति के घर बसते हैं, वे भी उक्त घटना का ही वर्णन करते हैं और जांगड़ा - पौरवाड़ कही जाने वाली ज्ञाति के वृद्ध एवं अनुभवी जन भी उक्त घटना का ही वर्णन करते हैं । यह कथा मैंने स्वयं इन ज्ञातियों के क्षेत्रों में भ्रमण करके अनुभवी एवं वृद्धजनों से मिलकर सुनी है ।
जब सम्राट अकबर की मृत्यु हो गई और डोले लेने की प्रथा भी प्रायः बन्द-सी हो गई, बीकानेर-राज्य के जंगलप्रदेश में बसने वाले इस शाखा के कुल वहां कोई व्यापार-धन्धा नहीं पनपता हुआ देखकर, उस स्थान का परित्याग करके दिल्ली से दूर मालवा - प्रान्त में आकर बस गये। मालवा में वे जांगड़ा - पौरवाड़ कहे जाने लगे । 'जांगड़ा ' उपाधि की उत्पत्ति का कारण यह नहीं होकर भले ही कोई दूसरा होगा, जिसका सम्भव है कभी प्रता भी लग सकता है, परन्तु इतना तो अवश्य हैं कि प्राग्वाट ज्ञाति की जैसे सौरठिया, कपोला, गुर्जर - शाखायें हैं यह भी उसकी शाखा है और उसके लघुसंतानीयकुलों का यह एक अलग संगठन है। जैनधर्म से जब से इस पक्ष का विच्छेद हुआ, जैनकुलगुरुत्रों ने भी इस पक्ष से अपना सम्बन्ध तोड़ दिया । मूलगोत्रों के नाम और कुलदेवियों के नाम या तो विस्मृत हो गये या वैष्णवमत अंगीकार करने के पश्चात् इनके गोत्र फिर से नये बने अब इस पक्ष के कुलों का वर्णन लिखने वाले वैष्णव भाट हैं, जिस प्रकार अन्य वैष्णव ज्ञातियों के होते हैं ।