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( २८ ) है, जैसे प्रियदर्शी से 'पियदसि'; प्राणाः से 'पानानि'। किन्तु पश्चिम और उत्तर के अभिलेखों में यह परिवर्तन नहीं हुआ है। वहाँ 'प्रियदसि', 'प्राणा' (पश्चिम) एवं 'प्रियशि' 'प्रणनि' (उत्तर) शब्दों में रेफध्वनि सुरक्षित है। (५) 'ऋ' के परिवर्तन में भी असमानता है। मृग से 'मगो' पश्चिम में है, 'मिगे' पूर्व में है, 'निगे' उत्तर में है। (६) पश्चिम का शिलालेख संस्कृत के अधिकतम समीप है। मिलाइये, पुरा महानसम्हि देवानं प्रियस प्रियदसिनो राओ अनुदिवसं बहुनि प्राणसतसहस्रानि आरभिस सूपाथाय (पश्चिम); पुलुवं महानससि देवानं पियस पियदसिने लाजिने अनुदिवसं बहुनि पानसतसहसानि आलभियिसु सुपठाये (पूर्व); पुर महनससि देवनं प्रियस प्रियदर्शिस राजिने अनुदिवसं बहुनि प्राणशत-सहस्रानि आरभिस सुपथये (उत्तर)। इन विभिन्नताओं के स्वरूप पर विचार करने से यह स्पष्ट हो जाता है कि वे मौलिक न होकर एक ही सामान्य भाषा के प्रान्तीय या जनपदीय रूप हैं, जो उच्चारण-भेद से उत्पन्न हो गये हैं। मूल तो उन सब का एक ही है-- मगध की राज-भाषा-मागधी,जिसमें ४०० वर्ष पहले भगवान् बुद्ध ने अपने उपदेश दिये थे और जो आज तक अपने उसी प्रामाणिक किन्तु मिश्रित रूप में पालि त्रिपिटक में सुरक्षित है। पालि और वैदिक भाषा
ऊपर अशोक की धर्मलिपियों में पाई जाने वाली पालि की विभिन्नताओं की ओर संकेत किया गया है। वास्तव में ये विभिन्नताएं पालि की जन्म-जात हैं। ये उसे वैदिक भाषा से उत्तराधिकार-स्वरूप मिली हैं। पालि का वैदिक भाषा से ऐतिहासिक दृष्टि से क्या सम्बन्ध है, इसका हम पहले विवेचन कर चुके हैं। यहाँ हम इन भाषाओं के स्वरूप की दृष्टि से ही विचार करेंगे। ऋग्वेद की रचना अनेक यगों में अनेक ऋषियों द्वारा की गई। अतः उसमें अनेक प्रादेशिक बोलियों का संमिश्रण मिलता है। ब्राह्मण-ग्रन्थों और सूत्र-ग्रन्थों में इसी भाषा के विकसित
१. अशोक के पूर्वी, पश्चिमी और उत्तरी अभिलेखों के ही भाषा-तत्व पालि में मिलते हैं। जिन्होंने पूर्वी तत्त्वों पर जोर दिया है उन्होंने पालि को मागधी या अर्द्ध-मागधी पर आधारित माना है, जिन्होंने पश्चिमी तत्त्वों पर जोर दिया है, उन्होंने उसमें शौरसेनी के तत्त्व ढूंढ़े है और जिन्होंने उत्तरी तत्वों को प्रधानता दी है, उन्होंने उसमें पैशाची तत्त्व ढूंढ़े हैं।