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लिये किसी जनपद में 'पाति', किसी में 'पत्त' किसी में वित्थ' किसी में 'सराव.' किसी में 'धारोप' किसी में 'पोण' किसी में 'पिसील' शब्द का प्रयोग होता है, तो भिक्षुओं को किसी एक शब्द को ही लेकर यह समझ कर नहीं बैठ रहना चाहिये कि यही प्रयोग ठीक है और सब गलत । बल्कि उन्हें तो अपने भी जनपद के प्रयोग के प्रति ममता न रख कर जहाँ जैसा प्रयोग चलता हो, वहाँ उसी के अनुसार वरतना चाहिये ' । अतः मगध- जनपद के प्रयोग के प्रति भी तथागत का अभिनिवेश या पक्षपात - व्यवहार कैसे हो सकता था ? अतः गायगर का अर्थ ग्रहण नहीं हो सकता ।
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जैसा हम ऊपर कह चुके हैं, गायगर की 'सकाय निरुत्तिया की व्याख्या के साथ असहमत होते हुए भी पालि भाषा के मागधी आधार को हम अस्वीकार नहीं कर सकते। अब तक हमने इस विषय सम्बन्धी जो विवेचन किया है वह हमें इमी निष्कर्ष की ओर पहुँचने के लिये वाध्य करता है कि पालि भाषा का विकास मध्यमंडल में बोले जाने वाली उस अन्तप्रान्तीय सभ्य भाषा से हुआ जिसमें भगवान् बुद्ध ने अपने उपदेश दिये थे और जिसकी संज्ञा बौद्ध अनुश्रुति के अनुसार 'मागधी' है । इसी 'मागधी' के विकसित, विकृत या अधिक ठीक कहें तो विभिन्न जनपदीय स्वरूप हमें अशोक के अभिलेखों की 'मागधी' में मिलते हैं । निश्चय ही इस अशोक-कालीन मगध-भाषा की उससे तीन सौ चार सौ वर्ष पूर्व बोले जाने वाली मगध-भाषा से, जो त्रिपिटक में सुरक्षित है, विभिन्नताएँ भी हैं। इन विभिन्नताओं के आधार पर ही ओल्डनवर्ग आदि विद्वानों ने यह निष्कर्ष निकाल डाला था कि पालि मागधी नहीं है । पालि को मागधी न मानने से उनका तात्पर्य, जैसा डा ई० जे० थॉमस ने दिखाया है, सिर्फ यही था कि पालि अशोक के अभिलेखों की भाषा नहीं है।` किन्तु यहाँ पर यह नहीं सोचा गया कि जो कुछ भी विभिन्नताएँ त्रिपिटक की भाषा और अशोक के अभिलेखों की भाषा में हैं, वे सब एक अन्नप्रान्तीय राजभाषा के प्रान्तीय प्रयोगों के आधार पर समझी जा सकती हैं। अशोक का उद्देश्य अपने विशाल साम्राज्य के विभिन्न जनपदों की सामान्य जनता तक अपने सन्देश को पहुँचाना था। जनपद-निरुक्तियों का अभिनिवेश उसके हृदय में
१. देखिये अरणविभंग सुत्त ( मज्झिम. ३ | ४ |९ )
२. बुद्धिस्टिक स्टडीज, पृष्ठ २३४ (डा० ई० जे० थामस का " बुद्धिस्ट एजूकेशन इन पालि एंड संस्कृत स्कूल्स "शीर्षक निबन्ध)