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पालि को किसी पच्छिमी वोली पर आधारित मानते हैं, गायगर के परम्परावादी मत को स्वीकार नहीं किया है। वास्तव में बात यह है कि व्याकरण की दृष्टि से निर्दोष होते हुए भी गायगर की बुद्ध-अनुज्ञा की उपर्युक्त व्याख्या उस प्रसंग में ठीक नहीं बैठती, जिसमें वह आई है। अतः पालि भाषा के स्वरुप के सम्बन्ध में उस मत को सिद्ध करने के लिये, जो दूसरे प्रमाणों के आधार पर उनके द्वारा ही सुनिश्चित कर दिया गया है, पर्याप्त नहीं ठहरती। सामान्यतः गायगर का अर्थ इन कारणों से प्रमाणिक नहीं माना जा सकता। (१) प्रसंग में वह ठीक नहीं बैठता। पहले भिक्षु लोग ‘सकाय निरुत्तिया' (अपनी अपनी भाषा में) बुद्ध-वचनों को दूषित करते दिखाये गये हैं। इस पर ब्राह्मण भिक्षुओं ने उन्हें 'छन्दस्' में करने का प्रस्ताव रक्खा है। भगवान् ने इस प्रस्ताव का विरोध करते हुए ‘सकाय निरुतिया' बुद्ध वचनों को सीखने की अनुज्ञा दे दी है। स्पष्टतः प्रसंग के अनुसार यहाँ 'सकाय निरुत्तिया' का वही अर्थ लेना ठीक है जो पहले लिया गया है, अर्थात् 'अपनी अपनी भाषा में'। (२) किसी विशेष भाषा में बुद्ध वचनों को सीखना ६ कर देना भगवान् तथागत की प्रवृत्ति के विपरीत है। इस प्रकार उनका ‘धम्म' प्रकाशित नहीं होता, जो सारी प्रजाओं के लिये खुलने पर ही प्रकाशित होता है २ (३) भगवान बुद्ध का जोर शब्दों पर नहीं था, अर्थों पर था। कोई भी भाषा किसी अन्य भाषा से उनकी दृष्टि में उच्च अथवा हेय नहीं थी। न उन्हें संस्कृत से द्वेष था, न मागधी से मोह । वे केवल जीवित भाषा में उपदेश देना चाहते थे, जिससे लोग उन्हें आसानी से समझ सकें। मागधी का ऐसा ही माध्यम उन्हें अनायास मिल गया, जिसे उन्होंने प्रयुक्त किया। (४) जनपद-निरुक्तियों अर्थात भाषा के स्थानीय प्रयोगों में तथागत को अभिनिवेश नहीं था। किसी एक भाषाप्रयोग में उनका आग्रह नहीं था। उन्होंने स्वयं कहा है कि एक ही वस्तु 'पात्र' के
१, इन्डियन हिस्टोरिकल क्वार्टरली, १, १९२५, पृष्ठ ५०१; बुद्धिस्टिक स्टडीज़
पृष्ठ ७३० २. ऐसाही अंगुत्तर-निकाय के तिक निपात में कहा गया है। देखिये विन्टरनिजः इन्डियन लिटरेचर, जिल्द दूसरी, पृष्ठ ६३-६४; मिलिन्द-प्रश्न (भिक्षु
जगदीश काश्यप का अनुवाद) पृष्ठ २३१ ३. किन्तिसुत्त (मज्झिम.३।१।३)