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हरणों से हम उनके द्वारा निश्चित सिद्धांत पर नहीं पहुँच सकते । लेवी का मत पालि भाषा की केवल एक विचित्रता को बतलाता है और वह विचित्रता है उसका विविधतामय रूप, जिसकी व्याख्या हम नाना बोलियों के संमिश्रण के आधार पर ही कर सकते हैं। अत: लेवी का मत भी अन्ततोगत्वा पालि के मिश्रित स्वरूप को ही प्रकट करता है ।।
ऊपर कुछ विद्वानों के मतों का उल्लेख और उनकी समीक्षा की जा चुकी है । अब बुद्ध-युग की परिस्थितियों और स्वयं त्रिपिटक के साक्ष्य पर पालि भाषा के मागधी आधार पर हम कुछ और विचार कर लें। यह निश्चित है कि भगवान् बुद्ध ने पैदल घूम घूम कर अपने उपदेश मध्य-मण्डल (मज्झिमेसु पदेसु) अर्थात् कोसी कुरुक्षेत्र से पाटलिपुत्र और विन्ध्य से हिमाचल के बीच के प्रदेश में दिये। यह भी निश्चित है कि उनके शिष्यों में नाना जाति, वर्ग और प्रदेशों के व्यक्ति सम्मिलित थे। इसी प्रकार यह भी निश्चित है कि भगवान् बुद्ध के उपदेश मौखिक थे और उनके महापरिनिर्वाण के अनन्तर दो-तीन शताब्दियों में उनका संकलन किया गया । उनका लिपिवद्ध रूप तो प्रथम शताब्दी ईसवी पूर्व में आकर हुआ, जब से वे उसी रूप में चले आ रहे हैं। इस इतने विकास की परम्परा में अनेक परिवर्द्धनों और परिवर्तनों की संभावना हो सकती है। भगवान् बुद्ध की 'चारों वर्णों की शुद्धि' और उसके विषय में उनकी कोई 'आचार्य-मुष्टि' (रहस्य-भावना) न होने के कारण हम यह तो स्वाभाविक ही मान सकते हैं कि नाना प्रदेशों से आये हुए भिक्षु अपनी-अपनी बोलियों में ही बुद्ध-वचनों को समझने का प्रयत्न करते होंगे। कम से कम अन्तरांतीय मागधी भाषा का व्यवहार करने पर भी उस पर अपनी बोलियों की कुछ छाप तो वे लगा ही देते होंगे । बाद में उन्हीं लोगों ने जब अपने सुने हुए के अनुसार बुद्ध वचनों का संकलन किया तो उनमें उन विभिन्नताओं का भी चला आना सर्वथा संभव था। अतः बुद्धवचनों की भाषा मल रूप से मागधी होने पर भी उसमें प्राप्त विविधरूपता की व्याख्या उपर्युक्त ढंग पर की जा सकती है। किन्तु गायगर ने मागधी को पालि का मूलाधार सिद्ध करने के लिए और यह दिखाने के लिए कि भाषा और विषय दोनों की ही दृष्टि से पालि-त्रिपिटक ही मूल बुद्ध-वचन है, एक ऐसे तर्क का उपयोग किया है जिसके बिना भी उनका काम चल सकता था। विनय-पिटक के चुल्लवग्ग में एक कथा है, जिसमें दो ब्राह्मण भिक्षु इस बात पर बड़े क्षब्ध होते दिखाये गये है कि नाना जाति और गोत्रों