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( २० )
संस्कृत
पालि माकन्दिक
मागन्दिय कचंगल
कजंगल अचिरवती
अजिरवती पाराचिक
पाराजिक ऋषिवदन
इसिपतन इन उद्धरणों के आधार पर लेवी ने अनुमान किया है कि पालि त्रिपिटक अपने मौलिक रूप में उस ऐसी भाषा में था जिसमें शब्द के मध्य-स्थित अघोष स्पर्शों के घोष स्पर्शों में परिवर्तित होने का नियम था। लेवी के मत को गायगर ने प्रामाणिक नहीं माना है । उन्होंने इसके तीन कारण दिये हैं (१) लेवी ने 'संघादिसेस' ‘एकोदि' 'पाचित्तिय' (प्राचित्तिक) आदि शब्दों की जो निरुक्तियाँ दी हैं, वे सभी अनिश्चित है (२) अघोष स्पर्शों का घोष स्पर्शों में परिवर्तित होना केवल उपर्युक्त शब्दों में ही नहीं पाया जाता, अन्य अनेक शब्दों में भी इस नियम का पालन देखा जाता है, उदाहरणतः
पालि उताहो
उदाहु ग्रथित
गधित व्यथते
पवेधति (३) लेवी द्वारा निर्दिष्ट नियम का ठीक विपरीत अर्थात् संस्कृत घोष स्पर्शों का अघोष स्पर्शों में परिवर्तित हो जाना भी पालि में दृष्टिगोचर होता है--
संस्कृत
पालि
संस्कृत अगरु
अकल परिघ
पलिघ
कुसीत मृदंग
मुतिंग शावक
चापक प्रावरण अतः गायगर के मतानुसार लेवी द्वारा निर्दिष्ट ध्वनि-परिवर्तन संबंधी उदा
कुसीद
पापुरण