________________
बाद में अर्द्ध-मागधी प्राकृत के रूप में ही हुआ है । अतः लूडर्स ने तथाकथित 'प्राचीन अर्द्ध-मागधी' के रूप का निर्माण अशोक के शिलालेखों और बाद में अश्वघोष के नाटकों के अवशिष्ट अंशों से किया है। किन्तु यह अनुमानित निर्माण कार्य प्रमाण-कोटि में नहीं आ सकता। पालि भाषा में प्राप्त विभिन्नताओं की व्याख्या उसके प्रांतीय विकास और संमिश्रण, मौखिक परम्परा और एक भिन्न देश में त्रिपिटक के लिपिबद्ध किये जाने के परिणाम स्वरूप भी की जा सकती है।
लूडर्स के समान ही एक मत प्रसिद्ध फ्रेंच विद्वान् सिलवाँ लेवी का है। उन्होंने यह प्रमाणित करने का प्रयत्न किया था कि पालि-त्रिपिटक मौलिक बुद्ध-वचन न होकर किसी ऐसी पूर्ववर्ती मागधी बोली का अनुवादित रूप है जिसमें ध्वनि परिवर्तन पालि भाषा की अपेक्षा अधिक विकसित अवस्था में था। पालि के ‘एकोदि' एवं 'संघादिसेस' जैसे शब्दों की उनके संस्कृत प्रतिरूप ‘एकोति' 'संघातिशेष' जैसे शब्दों के साथ तुलना कर उन्होंने त्रिपिटक के अन्दर एक ऐसी बोली के अवशिष्ट चिन्ह खोजने का प्रयत्न किया है, जिसमें शब्द के मध्य स्थित संस्कृत अघोष (कु, च, त्, प आदि) स्पर्शों के स्थान पर घोष (ग, ज, द्, ब् आदि) स्पर्श होने का नियम था। पालि त्रिपिटक और अशोक के शिलालेखों के कुछ विशेष शब्दों में, जिनमें उपर्युक्त नियम लागू होता है, लेवी ने प्राचीन मौलिक बुद्ध-वचन (जिन्हें उन्होंने ऐसा समझा है) में प्रयुक्त शब्दों के रूपों को खोजने का प्रयत्न किया है। उदाहरणतः भाव अभिलेख में 'राहुलोवाद' की जगह 'लाघुलोवादे' है, 'अधिकृत्य की जगह 'अधिगिच्य' है। लेवी का कहना है कि क (अघोष स्पर्श) के स्थान पर ग् (घोष स्पर्श) का होना पालि में तो बहुत अल्प ही होता है, इसी प्रकार अधिगिच्य' में 'च्य' भी पालि की प्रवृत्ति के अनुकूल नही है । इससे उन्होंने यह निष्कर्ष निकाला है कि वर्तमान पालि त्रिपिटक एक ऐसी भाषा से अनुवाद किया हुआ है, जिसमें अघोप स्पर्शो (क्, त्, प आदि) का घोष स्पर्शो (ग, द्, ब् आदि) में परि• वर्तित हो जाना अधिक सीमा तक पाया जाता था। नीचे के कुछ उदाहरण लेवी के तर्कों को स्पष्ट करने के लिए अलं होंगे-~--
१. बुद्धिस्टिक स्टडीज (डा० लाहा द्वारा सम्पादित) पृष्ठ ७३४, पद-संकेत २ २. गायगर : पालि लिटरेचर एंड लेंग्वेज, पृष्ठ ५