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के प्रतीक हैं और अन्तत: वासुदेव या नारायण से पराभूत होते हैं, जो असत् के ऊपर सत् की विजय के सामने सुनते हैं।
प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव
नाभिराज के समय में ही भोगभूमि का अवशिष्ट प्रभाव भी समाप्त-प्रायः हो गया और उन्होंने स्वेच्छा से अपने पुत्र ऋषभ को शासन-व्यवस्था सुपुर्द कर दी, ताकि वह मानव-समुदाय को कर्मभूमि में प्रवृत्त होने का मार्ग बता सकें। कर्मभूमि, मनुष्य का प्रकृति से संघर्ष करने, उसे अपने अनुकूल बनाने और उस पर विजय प्राप्त कर अपने श्रम से उससे आवश्यक भोजन, सम्पदा तथा सम्पदा-जन्य सुख-सुविधा बुद्धि एवं विवेक के आश्रय से सम्पादित करने का, विस्तीर्ण-उद्योग था। असि, मसि, कृषि, विद्या, वाणिज्य और शिल्प रूपी षट्कर्मों में मनुष्यों को प्रवृत्त करके ऋषभ ने कर्मभूमि या मानव-सभ्यता के विकास का प्रारम्भ किया। असि के माध्यम से स्व-रक्षा के लिए सन्नद्ध होना, मसि के माध्यम से बौद्धिक विकास करना, कृषि के माध्यम से भूमि से स्वयं धान्य उपजाना, विद्या के माध्यम से ललित कलाओं का सम्पादन करना, वाणिज्य के माध्यम से आर्थिक व्यवस्था का सूत्रपात करना, और शिल्प के माध्यम से यान्त्रिकवैज्ञानिक प्रवृत्ति का प्रारम्भ किया जाना, अभिप्रेत था।
जनसंख्या में नर-नारी अनुपात को नियमित करने और युगलिया व्यवस्था समाप्त होने के कारण स्त्री का भी उत्पादन इकाई के रूप में उपयोग किये जाने की दृष्टि से समाज-व्यवस्था की आवश्यकता अनुभूत हुई। संघर्षरत व्यवस्था में बहुत से युगल स्वाभाविक रूप से विच्छिन्न हो गये और मात्र नारी ही रह गयी, अतः विवाह की संस्था का आविर्भाव हुआ।
ब्राह्मी को भगवान ने अक्षर-ज्ञान दिया और सुन्दरी को अंक-ज्ञान, तथा इसप्रकार लेखन-कला तथा अंक-विद्या का प्रारम्भ हुआ और इनके आश्रय से ज्ञान-विज्ञान का विकास हुआ।
समाज में सामंजस्य स्थापित करने और आर्थिक व्यवस्था को नियोजित करने के उद्देश्य से उन्होंने मानव-समुदाय को क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र कर्मियों में परिगणित करने का मार्ग भी दिखलाया। मनुष्यों में बढ़ती हुई अपराध-वृत्ति को नियन्त्रित करने के लिए दण्ड-विधान का सूत्रपात भी किया और व्यवस्था के उच्छेदकों के लिए बन्धन एवं वध के दण्ड का प्रावधान किया।
समाज-व्यवस्था, अर्थ-व्यवस्था और शासन-व्यवस्था के सूत्रों को एक आधार देने के बाद ऋषभ ने आध्यात्मिक अभ्युदय का मार्ग भी प्रशस्त किया। गृह-त्यागी तपस्वी के रूप में उन्होंने मनुष्यों को सम्पत्ति मोह से विरत होने और अपने शुद्ध स्वरूप को पहचान कर सम्पूर्ण चैतन्य स्थिति की प्राप्ति की दिशा में मार्ग-दर्शन करने के लिए
इतिहास के प्रति जैन दृष्टि :: 35
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