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प्राकृतिक सम्पदा का नियमन आवश्यक हो गया। मनुष्य को भोजन के लिए दूसरे स्थान पर जाने की और उसके लिए पर्वतारोहण तथा नदी पार करने के लिए नाविक विद्या की भी आवश्यकता हुई। भोजन की खोज में चलवासिता का दौर (Nomadic Stage) प्रारम्भ हुआ। (13) प्रसेनजित् ने भ्रूण-विज्ञान की शिक्षा दी और बच्चों के जन्म पर जराय रूपी मल को हटाने का उपदेश दिया। (14) नाभिराज ने जन्मोपरान्त बच्चों की नाभि पर लगे नाल को काटने का उपाय बताया। अब मानव-सन्तान उस रूप में आयी, जिसको हम आज जानते हैं या जिसे आज हम देख रहे हैं। शारीरिक शुचिता और सन्तान के माता से स्वतन्त्र अस्तित्व का बोध हुआ। मानव कबीलों में परिभ्रमणशील रहा। जीने के लिए संघर्ष बढ़ता गया, जिसका परिणाम स्वभावतः जनसंख्या में नर-नारी अनुपात में असंगति उत्पन्न होना था। प्रजनन क्षमता अभी भी युगल तक ही सीमित थी, परन्तु जीवन-संघर्ष के लिए संख्या-बल की आवश्यकता अनुभव होने लगी। अपराध-वृत्ति का प्रसार हुआ और अब अपराधी को कबीले के नियन्त्रण में रखने के लिए 'हा, मा, धिक्' अर्थात् "खेद है कि तुमने ऐसा अपराध किया,अब मत करना,
और तुम्हें धिक्कार है, जो रोकने पर भी अपराध करते हो", की व्यवस्था समुपस्थित हुई। अब मानव सहज-प्रकृत-अवस्था को बहुत पीछे छोड़ चुका था तथा असंस्कृत अवस्था से सभ्य या स्वयं प्रयास से संस्कारित जीने की अवस्था (Civilised Stage) अर्थात् कर्मभूमि की ओर क्रमश: बढ़ रहा था।
प्रजा को जीने का उपाय बताने की अपेक्षा से मनु, मानवों को कुल की भाँति इकट्ठा रहने का उपदेश देने की अपेक्षा से कुलकर, अनेक वंश स्थापित करने की अपेक्षा से कुलधर और सभ्यता के युग के आदि में नियामक होने की अपेक्षा से युगादिपुरुष की संज्ञा से ये-सभी कुलकर जाने गये। ऋषभ को प्रजापति भी कहा गया, क्योंकि वह प्रजा को जीने की राह दिखाकर और उसमें प्रकृति से संघर्ष की सामर्थ्य जुटाकर प्रजा का पालन करने में समर्थ थे।
शलाका-पुरुष-युग
शलाका पुरुष से आशय है कि मानव-सभ्यता के विकास में उन्होंने विशिष्ट योगदान किया। शलाका का सामान्य अर्थ कुंजी है, अर्थात् ये शलाका-पुरुष मानवीय सभ्यता के विकास में कुंजी-सदृश (Key person) थे। 24 तीर्थंकर, 12 चक्रवर्ती, 9 बलदेव, 9 वासुदेव और 9 प्रतिवासुदेव के रूप में 63 शलाकापुरुषों का उल्लेख किया गया है।
तीर्थंकर शास्ता हैं। चक्रवर्ती सार्वभौम सत्ता का प्रतीक हैं। बलदेव या बलराम सत्प्रवृत्ति के प्रतीक हैं। वासुदेव या नारायण सद्-असद् प्रवृत्ति के प्रतीक हैं और असद् के ऊपर सद् की विजय सूचित करते हैं। प्रतिवासुदेव या प्रतिनारायण असत् प्रवृत्ति
34 :: जैनधर्म परिचय
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