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सागर
प्रथम संहननको धारण करनेवाले जीवोंके वह ध्यान अन्तर्मुहूर्त तक रहता है इससे अधिक नहीं ठहर सकता। सो हो तरवार्थसूत्र में लिखा है। उत्तमसंहननस्यैकाग्रचिंतानिरोधो ध्यानमान्तर्मुहूर्तात् ॥ अध्याय ९ सूत्र सं० २७
४१-चर्चा इकतालीसवीं - जैनधर्ममें चार आश्रम स्थापन किये हैं सो वे कौन-कौन हैं और उनका स्वरूप क्या है ?
समाधान-उपासकाध्ययन नामके सातवें अंगमें आश्रम चार प्रकारके बतलाये हैं । ब्रह्मचारी, गृहस्थ, वानप्रस्थ और भिक्षुफ। आश्रमोंके ये भेद क्रियाओंके भेदसे होते हैं सो ही प्रश्नोत्तर श्रावकाचारमें लिखा हैब्रह्मचारी गृही वानप्रस्थो भिक्षुकसत्तमः । चत्वारो ये क्रियाभेदादुक्ता वर्णवदाश्रमाः॥
इन चार प्रकारके वर्णाश्रमों से पहले ब्रह्मचारीके पांच भेद हैं---उपनय ब्रह्मचारी, अवलंब ब्रह्मचारी, अबीक्षित ब्रह्मचारी, गूढ ब्रह्मचारी और नैष्ठिक ब्रह्मचारी। इनके अन्तमें ब्रह्मचारी शब्द सबके साय लगा हुआ है । इनका विशेष स्वरूप इस प्रकार है--जो श्रावकाचार सूत्रका विचार करे, विद्याभ्यास करनेमें। सवा तत्पर रहे और गृहस्थधर्म में ( गृहस्थोंके द्वारा करने योग्य धार्मिक क्रियाओंमें ) निपुण हो उसको उपनय गु ब्रह्मचारी कहते हैं । जो जबतक विवाह न करे तबतक क्षुल्लक अवस्था धारण करे सदा जैनशास्त्रोंका अध्ययन करता रहे। अध्ययन समाप्तकर पीछे पाणिग्रहण करे उसको अवलम्ब ब्रह्मचारी कहते हैं । जो लिये ही व्रताचरण करनेमें लीन हो, जेनशास्त्रोंके अभ्यास करने में तत्पर हो और समस्त शास्त्रोंको पढ़कर फिर पाणिग्रहण करे। अर्थात् “शास्त्रोंका अभ्यास पूर्ण हुए विना विवाह नहीं करूंगा" ऐसा नियम लेकर विना दीक्षा लिये हो जो व्रतोंके आचरण करने में प्रवृत्ति करे उसको अदीक्षित ब्रह्मचारी कहते हैं । बालक अवस्थासे ही जैनशास्त्रों के अभ्यास करनेमें जिसका प्रेम हो और जो शास्त्रोको पढ़ चुकनेके बाद माता-पिताके । हठसे विवाह करे। भावार्य--जो स्वयं विवाह न करे फिन्तु दूसरेके हठसे जिसको विवाह करना पड़े। । उसको गूढ ब्रह्मचारी कहते हैं। तथा जो जीवनपर्यंत समस्त स्त्रीमात्रका त्याग कर देवे और एक वस्त्रमात्र । परिग्रहके विना बाको सबका त्याग कर वैवे सो नैष्ठिक ब्रह्मचारी है । इस प्रकार इनका स्वरूप है । यह ब्रह्म-8
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