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सागर
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इसी प्रकार श्रीमहावीर स्वामीके तीर्थमें एक मुनि और एक ज्येष्ठा नामकी अजिकाने अपनी दीक्षा भंग कर परस्पर सम्भोग किया। उससे ज्येष्ठा के गर्भ रह गया । वह ज्येष्ठा अर्जिका राजा श्रेणिककी पटरानी चेलनाकी बहिन थी। इसीलिये बेलनाने धर्मकी हंसी मिटानेके लिए उस ज्येष्ठाको अपने घरमें लाकर रक्खा। समय पूरा होने पर उसके पुत्र हुआ । सो अजिका तो छेदोपस्थापना प्रायश्चित्त लेकर तपोवनको चली गई तथा मे सुनि भी छंदोपस्थापना प्रामयित लेकर में जले गये । तथा पुत्र चेलनाके यहाँ पलने लगा और बढ़ने लगा । परंतु पापकर्मके उदयसे खेलता हुआ भी वह सब बालकोंसे विरुद्ध रहता था। चेलनाके पास उसके बहुतसे झगड़े आने लगे। तब किसी एक दिन चेलनाने कहा कि किससे तो उत्पन्न हुआ और किसको दुःख देता है । अपनी यह बात सुनकर उस बालकने चेलनासे पूछा कि मेरे माता-पिता कौन है। तब चेलनाने उसे पहला सव वृत्तांत सुनाया । उसे सुनकर वह बालक अपने पिता मुनिके पास गया और उसने उससे जिनदीक्षा ले ली। उस पुत्रका नाम सत्त्यकी या सो मुनि होनेपर भी उसका नाम सात्यकी हो रहा । क्रम-क्रमसे यह पढ़ने लगा सो ग्यारह अंग और चौदसवें विधानुवाद नामके अंग तक पढ़ गया। उस समय अनेक विद्याऐं आकर कहने लगीं कि हमें आज्ञा दीजिये। जो काम हो सो करें। तब वह सात्यकी मुनि ग्यारहवां रुद्र उन विद्याओंकी रूप संपदा देखकर तथा मुनिपनेसे शिथिल होकर कहने लगा कि जब हम स्मरण करें तब आकर हमारी आज्ञामें रहना ।
किसी एक प्रसंग पाकर भगवान महावीर स्वामीने अपनी दिव्यध्वनिमें कहा कि "यह सात्यकी मुनिवीक्षासे व्युत हो जायगा, भगवानकी यह वाणी सुनकर वह सात्यकी मुनि पर्वतोंके एकांत स्थानोंमें रहने लगा । किसी एक दिन यहाँपर किसी जलाशय में कोई राजकन्या स्नान करने आई थी उससे सात्यकी रुद्रने कहा तू मुझसे विवाह कर ले। तब कन्याने कहा विवाहकी बात हमारे माता पिता जानें। यह सुनकर रुद्रने कहा कि अच्छा यह बात अपने माता पितासे कहना । कन्याने कहा अच्छा कहेंगे । तदनंतर कन्याने घर जाकर अपने माता पितासे सब बात कही। इधर उस रुखने भी जाकर वह कन्या मांगी। माता पिताने वह कन्या उस स्वको विवाह । परंतु उस उनके कामसेवनसे वह कन्या भर गई । इस प्रकार कितनी हो कन्यायें मरणको प्राप्त हुई। अंतमें उसने एक पर्वत राजाको कन्या पार्वतीके साथ विवाह किया वह इसके कामसेवनसे मरी नहीं सो वह सात्यकी रुद्र अत्यंत कामो होकर तथा अत्यंत निर्लज्ज होकर उससे कामसेवन करने लगा। उस
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