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मर्यासागर [५३९]
अर्थात्--इस पंचमकालमें साक्षात् केवली नहीं है। परन्तु उनकी वाणीको जाननेवाले और रत्नत्रयको धारण करनेवाले आचार्य हैं सो उनको पूजा करनी चाहिये। आचार्य वा उनकी वाणीको पूजा करना। साक्षात् केवलीको पूजा करना है। इस प्रकार इसका अर्थ है जब आचार्योको पूजा साक्षात् केवलोकी पूजा कहलाती है तब आचार्योंके वचनोंका उल्लंघन करना साक्षात् केवली भगवानकी आज्ञाका उल्लंघन करना है। तथा केवली भगवानको आज्ञाका उल्लंघन करना सबसे बड़ा अविनय है। ऐसे लोगोंके लिये पद्मनन्दि पंचविशतिकामें विशेष रीतिसे लिया है । श्या---
यः कल्पयेत किमपि सर्वविदोपि वाचि संदिह्य तत्त्वमसमंजसमात्म्यबुद्धया । खे पत्रिणां विचरतां सुदृशेक्षितानां संख्या प्रति प्रविदधाति स वादमन्धः ॥
अर्य—जो मनुष्य सर्वज्ञके वचनोंमें संदेह कर केवल अपनी बुद्धिके बलसे तस्वोंका स्वरूप अन्यथा कल्पना करता है अर्थात् प्राचीन आचरणोंका लोपकर नवीन-नवीन कल्पना करता है वह पुरुष मानों अंधा होकर भी आकाशमें उड़ते हुये पक्षियोंके समूहकी गिनती करना चाहता है। भावार्थ-वह पुरुष समस्त कार्योको मिथ्या करता है।
प्रश्न-हमलोग केवलोके धचनोंमें संदेह नहीं करते उनमें तो हमारी गाढी श्रद्धा है।
उत्तर--यह बात ठीक नहीं है क्योंकि आचार्योके वचनोंमें संदेह होना अपने आप सिद्ध हो जाता है । जैसा कि पहले लिखा जा चुका है।
प्रश्न--वर्तमान समयके बनाये हये शास्त्रोंमें जो कथन है सोकहीं संदेह सहित है। इसलिये वह पूर्णरूपसे प्रमाण नहीं कहा जा सकता।
उत्तर-मालूम होता है कि आप लोगोंके पास चतुर्थकालके बने हुये ग्रन्थ भी होंगे तभी इस प्रकार कह रहे हो । परंतु चतुर्थ कालके ग्रन्थ विखाई नहीं पड़ते । वर्तमानमें जो ग्रन्थ हैं सो सब भूलरूप इस पंचमकालमें होनेवाले आचार्योके बनाये हुये हैं और उनकी भाषा बचनिकायें आप लोगोंने की हैं सो आप लोगोंकी को हुई वनिका तो प्रमाण और सत्य है परंतु आचार्योंके किये हुये मूल शास्त्रोंका श्रवान प्रमाणमें नहीं . आता ? णमोकार मंत्रके ध्यानको व्यवहारमयी मानकर उसमें गौणता धारण करना तथा अध्यात्मभादोंको