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चर्चासागर
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चैत्यवंदना करते हैं और उसमें "णमोत्थाणु अरिहंताणं भगवंताणं" आदि पाठ पढ़ते हैं तथा "सित्येवं बंदामि बइएवं वदामि" पढ़ते हैं अर्थात् "भगवान अरहंत देवको में नमस्कार करता हूं, मैं तीर्थोको नमस्कार करता हूँ और जिना रिमाको मार करता हूँ।" इस प्रकार पाठ पढ़नेका विधान है। इससे भी प्रतिमाको पूजा करना सिद्ध होता है।
यहाँपर चैत्यका अर्थ प्रतिमा होता है परंतु कोई-कोई लोग चैस्यका अर्थ प्रतिमा न करके शान अर्थ करते हैं तथा चैत्यका ज्ञान अर्थ करके प्रतिमापूजनका निषेध करते हैं सो उनका इस प्रकार निषेध करना व्यर्थ है क्योंकि ज्ञान तो सदा अपने पास रहता है फिर उसकी वंदना करनेके लिये नंदोश्वर द्वीपमें वा मेरु पर्वतपर जानेको क्या आवश्यकता है । नंदीश्वर वा मेरु पर्वतपर जाकर तो प्रतिमाको ही पूजा हो सकती है। ज्ञानको पूजा चाहे जहाँ हो सकती है वह तो सदा पास रहता है । उसको पूजा करनेके लिये अन्य देशमें वा अन्य क्षेत्रमें जानेकी आवश्यकता नहीं है। दूसरी बात यह है कि ज्ञानको वंदना करनेमें "णमो युग" इस पाठको क्या आवश्यकता है? परंतु यह पाठ भगवतीसूत्र में लिखा है।
भगवान तीर्थकरके मोक्ष जानेके अनंतर इन्द्रादिक देव आकर उनकी पूजा करते हैं तथा मुंहसे दान। निकालकर स्वर्गमें ले जाते हैं और उसकी पूजा करते हैं। सो वह दाढ भी अचेतन है। उसकी पूजा क्यों को जाती है । उपासकाध्ययन नामके सूश्नमें श्रावकके बारह यतनों में जिनप्रतिमा और उसको पूजा करनेका वर्णन है
और लिखा है कि आनंद नामके श्रावकने उनकी कथा कही थी । सो यह कथन भी किस प्रकार आया ? इसके सिवाय ज्ञातृस्वरूप, आवश्यकसूत्र और समय श्रेणीसूत्र आदि किलने हो सूत्रोंमे रत्न, सुवर्ण, चाँदी, पाषाण आदिको जिनप्रतिमा बनानेका विधान लिखा है । फिर उसका निषेध क्यों करते हो ? महायोर चरित्रमें जिनप्रतिमाके प्रतिष्ठाके अक्षर लिखे हैं । तथा कपिल नामके किसो केवलीको प्रतिष्ठा करना लिखा है । फिर प्रतिमापूजनका निषेध कैसे करते हो ? समवाय सूत्रमें ौतोस अतिशयों के निर्णयमें लिखा है कि जिनप्रतिमाकी पूजा करनेके लिये जलमें उत्पन्न हुए कमल आविक सपा स्थल में उत्पन्न हुए बेला, चमेली, गुलाब आदिके फूल चढ़ाने चाहिये।
भगवतीमें लिखा है कि जिनप्रतिमाकी पूजा दीपक जलाकर, धूप लेकर तथा जल गंधाक्षतादि आठों द्रव्योंसे । करनी चाहिये । इस प्रकार सब जगह प्रतिमा पूजनका विधान है फिर प्रतिमापूजनका निषेध किस प्रकार किया जा सकता है?
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