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वर्षासागर
करनेसे मोक्षको प्राप्ति नहीं होती तो केवल नामका उच्चारण कर जप करनेसे वा उसका ध्यान करनेसे तो भो । मोक्षको प्राप्ति नहीं होती। क्योंकि जैसी मूर्ति जड़ है वैसा शब्द भो जड़ है।
इसलिये मानना चाहिये कि मोक्षको प्राप्ति कर्मोंके क्षय होनेसे ही होती है। कर्मों के आय करनेके दो उपाय हैं एक सरागमार्ग और दूसरा वीतराग मार्ग । जिनप्रतिमाको पूजा करना, दान देना आदि तो सरागमार्ग है। महाव्रत धारण करना, इन्द्रिय तया कषायोको जीतना, ध्यान करना, तप करना, व्रत करना, उपवास करना, उपशम श्रेणीका चढ़ना, यथाख्यातचारित्रका धारण करना आदि वीतराग मार्ग है। इनमेंसे सरागमार्ग एक देश कौको क्षय करनेवाला है इसलिये परंपरासे मोक्षका कारण है और वीतराग मार्ग पूर्ण कर्मोको नाश करनेवाला है इसलिये वह साक्षात् मोक्षका कारण है । इस प्रकार दोनों हो मोक्षके कारण हैं । इसलिये अपनी जैसी पदवी हो उसीके अनुसार चलना चाहिये । तथा उच्च पदयोको भावना सदा रखनी चाहिये । भावार्थ
गृहस्थोंका धर्म देवपूजा और दान देना मुख्य है तथा मुनिधर्म धारण करनेको आकांक्षारूप है और मुनियोंका । धर्म महावतादि रूप वीतराग मय है और केवलज्ञान प्राप्त करनेको आकांक्षारूप है ऐसा अभिप्राय समझना चाहिये । इस प्रकार जिनप्रतिमापूजनका निषेध करनेवालोंका निराकरण किया ।
२५२-चर्चा दोसौ बावनवीं कितने ही भागवतो वैष्णव तथा स्मातिक मतके शैवलोग वा अन्य धर्मके कितने ही लोग कहते हैं कि जैनमत तो नास्तिक मत है इसलिये प्रशंसा करने योग्य नहीं है मलिन धर्म है। वे लोग यह भी कहते हैं कि शैव और वैष्णवोंको जिनमंदिरों में नहीं जाना चाहिये। जो जाते हैं उनको बुद्धि छह महीने तक हो रहती है। अर्थात् जैन मंदिरमें जानेवाला पुरुष छह महीनेमें हो बुद्धिहीन हो जाता है । इसलिये जैन मंदिरमें कभी नहीं जाना चाहिये । लिखा भी हैअजां हत्वा सुरां पीत्वा गत्वा गणिकमंदिरम् । हस्तिना ताडयमानोपिन गच्छेज्जैनमंदिरम् ॥
अर्थ-बकरा मारना, शराब पीना और वेश्यागमन करना ये सब अयोग्याचरण हैं सो तो भले हो कर लेना चाहिये परंतु सामनेसे आते हुए हाथोके द्वारा प्राण नष्ट होनेपर भी अपने प्राण बचानेके अभिप्रायसे भी जैन मंदिर में नहीं जाना चाहिये । भावार्थ-प्राण नष्ट होते हों तो हो जाने देना चाहिये । किंतु उसी स्थानपर ।