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शुद्धनयके द्वारा आत्मभावनायुक्त शुद्धोपयोगमय अवस्थाको "सोहं सोह" इस प्रकारके जप और आरमध्याम
को मुख्य मानता, शुद्धोपयोग रूप अवस्थाको कार्यकारी मानना और बाकी सब कार्योको व्यवहार मानकर वर्गासागर । छोड़ते जाना इस प्रकार शुख निश्चयरूप अवस्था मानना और परिग्रह भी रखमा सर्वथा शास्त्र विरुद्ध है क्योंकि :५४०) ज्ञानार्णवमें लिखा है कि गृहस्थोंके ध्यानकी सिद्धि नहीं हो सकती। यथा ।
न प्रमादजयं कर्तुं धीधनैरपि पार्यते। महादुःखेन संकीर्णे गृहवासेऽतिनिंदिते ॥ शल्यते न वशीकत ग्रनभिश्चपलं मनः। अतश्चित्तप्रात्यर्थं सद्भिस्त्यक्तगृहस्थितिः ॥
अर्थात्--यह गृहजाल अनेक संकटोंसे भरा हुआ है तथा अत्यंत निंदनीय है। इसमें रहते हुए भव्य । जीव बिना आत्मशुद्धिके प्राप्त हुए प्रमादको जीत नहीं सकते। तथा जबतक प्रमाद जीते नहीं जाते तबतक
शुद्धोपयोग रूप भाव नहीं हो सकते। और जब शुद्धोपयोग रूप भाव नहीं हो सकते तबतक ध्यानको सिद्धि किस प्रकार हो सकती है। इसके सिवाय गृहस्थ लोग अपने चंचल मनको वश नहीं कर सकते। इसलिये। चित्तको शांत करनेके लिये वश करने के लिये सबसे पहले गृहवास छोड़ देना चाहिये। गृहवासके छोड़ देनेसे। हो ध्यानकी सिद्धि हो सकती है । सो हो लिखा है
प्रतिक्षणं द्वन्द्वशतार्तचेतसा, नृणां दुराशाग्रहपीडितात्मनाम् । नितंविनीनां लोचनचारुसंकटे,गृहाश्रमे नश्यति स्वात्मनो हितम् ॥ ४॥
अर्थ--इस गृहस्थाश्रममें रहनेवाले लोगोंका हृदय क्षण-क्षणमें होनेवाले सकड़ों आर्त वा वुःखोंसे वा उपद्रवोंसे भरा हुआ रहता है तथा उनका आत्मा खोटी आशारूपो पिशाचिनीसे पीड़ित रहता है । इसके सिवाय । वह गृहस्थ स्त्रियों के नेत्रोंकी चंचलता रूपी संकटमें सदा पड़ा रहता है इसलिये ऐसे गृहस्थके आत्माका हित कभी नहीं हो सकता। और भी लिखा है--
निरन्तरार्तानलदाहदुर्गमे, कुवासनाध्वान्तविलुप्तलोचने ।
अनेकचिन्ताज्वरजीर्णतात्मना, नृणां गृहे नात्महितं प्रसिद्धयति ।। अर्थ-गृहस्थमें रहनेवाले लोग आर्स, रौद्र ध्यानरूपी दुर्गम अग्निसे सवा जलते रहते हैं तथा पुरी