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दसण अणंतणाणं अणंत वीरिय अणंत सुक्खायासासबसुमन्य अदेहा मुआनाम्मट्ठबंधेय॥
णिरुवममचलमखोहा णिमाविया जंगमेण रूवेण । वर्षासागर
सिद्धट्ठाणम्मिया वो सर पडिमा माधुवा सिद्धा॥ [ 1
अर्थ-जो अनन्तदर्शन, अनंतज्ञान, अनंतवीर्य और अनंतसुख इन अनंत चतुष्टयोंसे सुशोभित है, जो शाश्वत, अविनाशीक, सुख सहित हैं, जो ज्ञानावरणादि आठों को बंधसे रहित हैं, जो सब तरहको उपमाओं से रहित हैं, अचलप्रदेशी हैं. क्षोभरहित हैं, जंगमरूपसे बनी हुई है और एकाग्र सिद्धस्थानमें ध्रुवरूप वा निश्चल रूपसे विराजमान हैं ऐसे सिद्ध परमेष्ठी स्थावर प्रतिमा हैं।
ऊपर वो गाथाओंमें जंगम प्रतिमा या चलती हुई प्रतिमाका स्वरूप बतलाया है और फिर दो गाथाओं" में स्थावर प्रतिमाका स्वरूप बतलाया है इन्हीं स्थावर और जंगम भेवसे दो प्रकारको जिनप्रतिमाका पूजन,
वन्दन, स्तवन, दर्शन आदि भक्तिके लिये उन्हींको धातुपाषाणमयो प्रतिमा बनाकर प्रतिष्ठापूर्वक जिनालयमें विराजमान करते हैं । वह भी महापुण्यका कारण है। असद्भूतव्यवहार नयका विषय है। इनके सिवाय मेह
पर्वत पर नन्दीश्वर आदि द्वीपोंमें कुलाचल, गजवंत, विजयाधं पर जो अनादि, अनिधन, शाश्वती अरहन्त । । परमेष्ठीको जिनप्रतिमा विराजमान है जहाँ पर इन्द्रादिक, चतुणिकायके देव तथा ढाई छोपोंके विद्याधर और। ऋद्विषारी मुनि उनकी पूजा, वंदना आदि करके महापुण्योपार्जन करते हैं सो सब धर्मानुरागके लिए करते हैं। तथा वे विद्याधराविक उनकी वन्दनासे प्राप्त हुए पुण्योपार्जनसे इन्द्राविकके सर्वोत्तम पद पाकर क्रमसे थोड़ेसे उत्तम भव धारण कर मोक्षपद प्राप्त करते हैं। इस प्रकार धातुपाषाणको बनो हुई कृत्रिम वा अकृत्रिम जिनप्रतिमाको भक्ति करनेका फल है। इनके विशेष-विशेष फलोंका स्वरूप अन्य ग्रन्थों से जान लेना चाहिये।
प्रश्न-ऊपर जो कथन बतलाया गया है वह मूल गाथाओंमें नहीं है टोकामें लिखा है । इसलिये वह पूर्णरूपसे प्रमाण नहीं है इसलिये हम तो ऊपर लिखी हुई जंगम और स्थावर प्रतिमाको ( अरहंत सिद्धकी ) बंदना करते हैं। इनके सिवाय अन्य जो धातु पाषाणकी कल्पना की हई प्रतिमाएं हैं वे निश्चयनयसे मोक्षमार्गके
स्वरूपमें कारण नहीं है। केवल व्यवहारसे कारण हैं सो व्यवहारसे कोई सिद्धि होती नहीं। यह धातु पाषाणसमयी प्रतिमा तो अल्पज्ञानियोंके लिये असमझ लोगोंके लिए बनाई है आत्मज्ञानियोंके लिए नहीं है। सो हो
योगीन्द्रदेवकृत योगसारमें लिखा है
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