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पर्यासागर
करना, तप और स्वाध्याय करना आदि सब समस्त कर्तव्य एक चैतन्य स्वरूप शुद्ध आत्माको प्राप्तिके लिये हैं। जिस प्रकार दर्शनविशुद्धि, विनयसंपन्नता आदि सोलहकारण भावनाएं तीर्थंकर प्रकृतिके आस्रवके कारण हैं उसी प्रकार व्यवहारधर्म निश्चयधर्मका कारण है, जिस प्रकार तीर्थकर प्रकृति के लिये सोलह कारण भावनाओंका चितवन करते हैं उसी प्रकार आत्मस्वरूपको प्राप्तिके लिये भगवान अरहन्तदेवकी प्रतिमाको पूजा सत्पात्र वान आवि समस्त व्यवहारधर्म करना चाहिये । इसलिये पूजा, नुति, जप, ध्यान, भक्ति, विनय आदि किये जाते हैं। सो हो जैनगीतामें लिखा है
जिनेशिनः स्नानात्स्तुतियजनजयान्मंदिरा_विधानात्, चतुर्थादानादध्ययनरव "जयतो ध्यानतः संयमाच्च । व्रताच्छीलात्तीर्थादिकगमनविधेः क्षातिमुख्यप्रधर्मात ,
क्रमाच्चिद्रपाशि भवति जाति रोनालकास्तस्य तेषाम् । देवं श्रुतं गुरु तीर्थ भदंतं च तदाकृतिम् । शुद्धचिद्रपसद्ध्यान हेतुत्वाद्भजने सुधीः।
अर्थ-जो जीव शुद्ध चिप शुद्ध आत्माको प्राप्ति करना चाहते हैं उनके भगवानका अभिषेक करने । से, भगवानको स्तुति करनेसे, जप करनेसे, मंदिर प्रतिमा आदिकी प्रतिष्ठा, पूजा आदि करनेसे, चार प्रकारका ॥ दान वेनेसे, शास्त्रोंका अध्ययन करनेसे, इन्द्रियोंको जोतनेसे, ध्यान और संयम पालन करनेसे, व्रत तया शोलके । पालन करनेसे, तीर्थयात्रा करनेसे और उत्तम क्षमा आदि दश धर्मोके पालन करनेसे अनुक्रमसे शुद्ध आत्माकी प्राप्ति होती है । इसी प्रकार अरहंत देवकी निरनन्ध गुरुकी द्वादशांगरूप श्रुप्तज्ञानकी, जिनका सहारा लेकर यह जीव पार हो ऐसे कैलाश, सम्मेदशिखर, गिरनार, चंपापुर, पावापुर वा और भो निर्वाणक्षेत्र आदि तीर्थको तथा भदंत आदि भट्टारक तीर्थकर परमदेवकी और उनकी प्रतिमाको जो बुद्धिमान सेवा भक्ति करते हैं उनका र्शन, । पूजन,नमस्कार आदिके द्वारा अनेक प्रकारको भक्ति करते हैं, उनका ध्यान जप स्तुति करते हैं सो सब चिद्रूप सिद्धस्वरूप आत्माके ध्यानके लिये हो करते हैं । अर्थात् इन सबके करनेसे शुद्ध आत्माके ध्यानको प्राप्ति होतो । है। इस प्रकार जैनगीताके तीसरे अध्यायमें लिखा है सो सब पथार्थ है।
पहले जो बिन प्रतिमाके स्थावर और जंगम ऐसे शे भेव बतलाये थे सो शास्त्रोंमें उनकी पूजा, वेदना,