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कारण है, सम्यग्दर्शनका घातक है शुद्धोपयोग और शुभोपयोगका विरोधी है सदा अभोपयोगको बढ़ानेवाला है।
नरकादिक अधोगतिसे ले जानेवाला है । आत्माके गुणोंका धातक है। शुद्ध ज्ञान और आचरणका लोप करने वर्धासागर वाला है । रत्नत्रयका बाधक है, मोक्षमार्गका नाश करनेवाला है । सन्मार्गका नाश करनेवाला है । उन्मार्गको १५.] वा कुमार्गको पुष्ट करनेवाला है तथा स्वच्छंदताको प्रवृत्ति करनेवाला है । कहाँ तक कहा जाय अनेक विपरो
तताका कारण है । तुम्हारा इस प्रकारका (प्रतिमासीका पूजा न करनेका ) जो श्रद्वान, ज्ञान वा आचरण है सो! प्रथमानुयोग, करणानुयोग, चरणानुयोग, द्रव्यानुयोग आदि समस्त द्वादशांगमय जिनागमरूप सिद्धांत के विरुद्ध ॥ है। कथा, पुराण, चरित्र आदिको लोप करनेवाला है समस्त शास्त्रोंकी आज्ञाको भंग करनेवाला और अविनय। की प्रवृत्ति करनेवाला है।
सिर्भात ग्रन्थोंमें जो शुद्धोपयोगका कथन किया है तत्त्वोंके स्वरूपका निर्णय बतलाया है और उसमें पुण्य पदार्थको गौण बतलाया है । मोक्ष तत्वको मुख्यता बतलाई है तथा मोक्षतत्त्वको मुख्यताका वर्णन करते समय जीव तत्वमें आप हो को परमात्मा बतलाया है अन्य सबको व्यवहार बतलाकर सबका त्याग कराया है । सो यह सब कथन एकविहारी जिनकल्पो मुनियोंके लिये है यह सब उपवेश सात-आठ आदि ऊपरके गुणस्थानोंकी अपेक्षासे दिया गया है । सो इन ऊपरके गुणस्थानों में व्यवहारका स्याग हो हो जाता है । ये सब गुणस्थान तो शुद्ध ध्यान अवस्थाके हैं इनमें व्यवहारका क्या काम है। इसीलिये ऐसा कहा गया है।
यदि ऐसा न माना जाय और इस शुद्ध निश्चयनयसे कहे हुए कथनको चतुर्थगुणस्थानवर्तो गृहस्थोंके लिये हो मान लिया जाय तो फिर श्रावकको ग्यारह प्रतिमाएं तथा छठे गुणस्थानमें रहनेवाले मुनियों के पालन करने योग्य अट्ठाईस मलगुण आदि समस्त व्यवहारधर्मका लोप करना पड़ेगा। परन्तु इन सब व्यवहार धर्मोका लोप हो नहीं सकता।
इसके सिवाय एक बात यह भी है कि समस्त व्यवहारधर्म निश्चयधर्मको प्राप्तिका कारण है। इस लिये वह सम्यग्दर्शन पूर्वक गृहस्य और मुनियोंको ग्रहण करने योग्य है । यदि इस व्यवहार धर्मके बिना स्वच्छंद ।। होकर आत्मज्ञानी बनना और विषय कषायोंमें तुप्त रहना है सो आत्माको ठगना है, क्योंकि अणुव्रत, महाव्रत । आदिका पालना, तीर्थयात्रा करना, यथायोग्य वर्शन, पूजन आदि करना, धर्मोपदेश देना, ध्यान, अध्ययनका सिद्ध