Book Title: Charcha Sagar
Author(s): Champalal Pandit
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad

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Page 570
________________ वर्षासागर [are] सकती । और भी लिखा है "अहिंसालक्षणो धर्म" अर्थात् धर्मका लक्षण अहिंसा ही है। इन सब प्रमाणोंसे प्रतिमापूजनका श्रद्धान करना योग्य नहीं मालूम होता। यदि किसी स्त्रोका पति मर जाय और वह स्त्री उसकी धातु या पाषाणकी मूर्ति बनाकर उसकी सदा भक्ति करती रहे तो भी उससे उसके संतान नहीं हो सकती । इसी प्रकार धाडुगामी प्रमिको कोई फल नहीं मिल सकता । इस प्रकार कितने हो लोग कुयुक्तियोंके द्वारा मूर्तिपूजाका खंडन करते हैं। कितने ही अध्यात्मी, समैया, श्वेताम्बर मतसे निकले लोकगच्छके ढूढिया साधु toris, अन्य मतके वेदान्ती आदि बहुतसे मतवाले अपनी बुद्धिके बलसे मूर्तिपूजा में दोष कल्पना करते हैं तथा उनकी वंदना, पूजा, तीर्थयात्रा, दर्शन, स्तोत्र, स्तुति आदिमें अरुचि उत्पन्न करते हैं निषेध करते हैं सो सब मिथ्या है। इन सबका यहाँपर परिहार करते हैं सबका उत्तर देते हैं । सबसे पहले अध्यात्मी, शुद्धोपयोगी, आत्मज्ञानी आदि समैया मतके लिये कहते हैं। जैनधर्मके जितने सिद्धांत ग्रन्थ हैं, पुराण चरित्र हैं उन सबमें जिनमंदिर तथा प्रतिमाओंके अनेक भेव वर्णन किये हैं सममें तोर्थयात्रा, दर्शन, वंदना, पूजन, स्तवन आदि अनेक प्रकार की भक्तिका वर्णन किया है। मुनि अर्जिका श्रावकश्राविकाओं को भगवान अरहंत वेवकी भक्ति करना महा पुण्धका कारण बतलाया है। तथा परंपरासे मोक्षका कारण बतलाया है । रत्नत्रयरूप धर्मका हेतु बतलाया है। भगवान अरहंत देवकी प्रतिमाकी भक्ति करनेसे अनेक जीवोंको मोक्षकी प्राप्ति हो रही है, हुई है और आगे होगी ऐसा अनेक शास्त्रों में वर्णन किया है । इनके सिवाय मेरु पर्वतपर वा कुलावल विजयार्थ आदि पर्वतों पर अनादिकाल से अकृत्रिम जिन स्यालय और जिन प्रतिमाजी चली आ रही हैं तीनों लोकोंमें अकृत्रिम जिन चैत्यालय विराजमान है जिनका वर्णन समस्त शास्त्रों में है। अनेक भव्य जीव उनकी मेवा पूजाकर परमानंद पद प्राप्त करते हैं तथा अनेक प्रकारके महा दुःख देनेवाले नरकादिक दुर्गतियोंका नाश करते हैं और जन्म-जन्मांतरके पापोंको नष्ट कर महान् धर्मको प्राप्त होते हैं। यह कथन और यह रोति अनाविकालसे परंपरा चली आ रही है । इनका वर्णन समस्त जैन शास्त्रोंमें है। ऐसा कोई शास्त्र नहीं है जिसमें इसका निषेध हो । केवल थोड़ेसे समैया लोग हो ऐसा कहते हैं सो उसकी श्रद्धा ज्ञान आचरण किस प्रकार किया जाय । तुम्हारा यह कहना और उसका श्रद्धान करना सब सर्वज्ञ देवके वचनों के विरुद्ध है महा अविनयरूप है। अनंत संसारको बढ़ानेवाला है मिय्यास्वका [4

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