Book Title: Charcha Sagar
Author(s): Champalal Pandit
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad

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Page 564
________________ चर्चासागर [ ५४३ अर्थ - इस गृहस्थाश्रम में यह जीव कभी तो सामायिक, प्रतिक्रमण, व्रत, उपवास, यम, नियम आदि धर्ममयी क्रिया हो करता है। कभी स्त्रीसेवन आदि पाँचों पापोंका सेवन करता है। तथा कभी-कभी पूजा-प्रतिष्ठा, तोर्थयात्रा आदि पुण्य पाप रूप मिली हुई क्रियाएँ करता है। इस प्रकार गृहस्थाश्रम बुद्धिमान लोगोंके लिये भी अधेकी रस्सीके समान है अथवा हाथीके स्नान के समान है अर्थात् जिस प्रकार अन्धा पुरुष रस्सो बटता जाता है और पीछे से गाय उसे खाती जाती है अथवा हाथी स्नान करनेके बाद भो मार्गको धूलको वा कूड़े, कर्कटको सड़से ले लेकर अपने सब शरीर पर डालकर शरीरको मैला कर लेता है उसी प्रकार यह गृहस्थाश्रम मदोन्मत वा पागल पुरुषोंकी चेष्टाओंके समान है। इसमें आत्माका हित कभी नहीं हो सकता । यह जीवको कल्याणकारी नहीं हो सकता । इस प्रकार जो लोग गृहस्थाश्रममें भी शुद्धोपयोग अध्यात्मभाव तथा आत्मध्यानकी सिद्धि मानते हैं उनका समाधान किया । सिद्धि मुनिराजके भा आठवें गुणस्थानसे लेकर बारहवें गुणस्थानके अन्त में पूर्ण होती है। छठे गुणस्थानमें भी यदि विचार किया जाय तो शुद्धोपयोगकी गुणस्थान तक क्रमसे बढ़ती हुई होती है। तथा बार शुभोपयोग है। छठे सातवेंमें यथासाध्य शुद्धोपयोग है। आत्मध्यानको प्राप्ति नहीं है । जब छठे गुणस्थानमें भी यह हाल है तो फिर जिसके चौथे गुणस्थानका भी निश्चय नहीं है और अपनेको अध्यात्मी, आत्मध्यानी शुद्धोपयोगरूप मानता है उसके शुभोपयोग तो छूट जाता है और शुद्धोपयोगकी प्राप्ति नहीं होती इस प्रकार वह दोनोंसे च्युत हो जाता है। भावार्थ — ऐसा पुरुष देवपूजा आदि शुभोपयोगसे अपना भाव हटा लेता है और शुद्धोपयोगी प्राप्ति होतो नहीं। इस प्रकार वह शुद्धोपयोग और शुभोपयोग दोनोंसे छूटकर अशुभोपयोगमें आ जाता है तथा अशुभोपयोग होनेसे उसके पाप बंध ही होता है इसलिये गृहस्थों को शुद्धोपयोग बननेका अधिकार नहीं है। गृहस्थोंको तो अशुभोपयोगका त्याग कर देना चाहिये और शुभोपयोगरूप रहना चाहिये । यदि ऐसा न माना जायगा तो अणुव्रत, महाव्रत, अट्ठाईस मूलगुण, श्रावककी ग्यारह प्रतिमाएँ, चतुविध संघ, पूजा, प्रतिष्ठा, तोर्थयात्रा, व्रत, उपवास, सत्पात्रोंको दान देना, करुणा दान, जप, तप, यम, नियम आदि शुभपयोगमय व्यवहार धर्म सब व्यर्थ हो जायगा । तथा इन सबके व्यर्थ होनेसे फिर शास्त्रोंका स्वाध्याय किस काममें आयेगा । परंतु ये सब क्रियाएं व्यर्थ नहीं है सार्थक हैं सो ही तत्त्वज्ञानतरंगिणी में लिखा है [

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