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चर्चासागर [ ५०५
जगाद गोपी पुत्रोयं स्वामिन्यास्तव पाल्यते । अस्माभिः सेवकैर्नित्यं वदा देश परायणैः॥८३॥ अत्र चिरं वस्तु तत्तवैवास्ति निश्चितम् । तेनायं खलु पुत्रोपि तवैवेह ममास्ति कः ॥ ८४ ॥ अत्रांतरे प्रस्तुतस्याः पुत्रदर्शनतः स्तनौ । शशाक संवरीतु नो क्षरंतो रहितान्तरौ ॥८५॥ यथोज्झितोस्ति पुत्र रे दुष्टकंसस्य साध्वसात् । अत्यंत शुद्धमात्मीयं दर्शनं नीरराजसा ॥ ८६ ॥ प्रकाशभीरुसहसा हली क्षीरघटैश्च ताम् । अभ्यषिंचन् महाबुद्धः दक्षः कार्येण मुज्झति ॥८७ हरिप्रेक्षणतः प्राप्तसुखां तां मथुरां पुनः आनीय प्रवेश्याथ पित्रे वार्ता तमब्रवीत् ||८|| ततःप्रभृति तज्जातं गोवत्साचननामकम् । मिथ्यात्वं वनितालोकमुग्धचित्तैः प्रतिष्ठितम् ॥८
जब कृष्णकी बहिनका जन्म हुआ था तब फंसने उसकी नाक काट ली थी। बड़ी होनेपर किसी एक दिन उसने अपना मुँह दर्पण में देखा । सो अपना कुरूप देखकर संसारसे उदास हो दीक्षा धारण कर ली और वह आजका बन गई । किसी एक दिन वह अजिंका विन्ध्याचल पर्वतके ऊपर एक वनमें रात्रिमें ध्यान धारण कर बैठी थी । उसी मार्गले एक भीलोंका राजा अन्य बहुतसे भोलोंके साथ किसी पथिकका धन लूटनेके लिये जा रहा था । उन्होंने वह अजिका देखो और समझा कि यह कोई वनदेवी हैं। इसकी पूजा की, मानता करो । यदि इसकी पूजा करनेसे बहुत-सा धन मिलेगा तो हम बलिदान देकर तेरी पूजा करेंगे। ऐसी प्रतिज्ञा कर वे चले गये । दैवयोगसे उस दिन उनको बहुत सा धन मिल गया। तब उन चोरोंने देवीका प्रत्यक्ष चमकार जानकर उसकी पूजा करनेका विचार किया। इधर उन भोलोंके चले जानेपर उस अर्जिकाके पास सिंह आ गया वह उस आर्जिकाका भक्षण कर चला गया। अर्जिका समाधिमरण कर स्वर्ग सिधारी। इसके बाद वे भील यहाँपर वेवीकी पूजा करनेके लिए आये । परन्तु उन्हें वह वनदेवी ( अजिका ) न मिली वहाँपर केवल उसकी तीन उँगलियाँ पड़ी मिलीं। उन्होंने उन्होंको खड़ा कर लिया और त्रिशूल मानकर उसकी पूजा करने लगे । बनके अरणा, भैंसा और बकरे आदिको मारकर उससे झरते हुए मस्तकके रुधिरसे उस त्रिशूलको पूजा करने लगे। इस प्रकार बलिदान देकर देवीको स्थापना की और उसका नाम विन्ध्यवासिनी देवी रक्खा । तबसे ही भील आदि नीच, पापी लोग परम्परासे ऐसा करते चले आ रहे हैं। वह महापापस्थान आज तक मिरजापुरके निकट विन्ध्याचल पर्वतपर है। वहाँपर अब भी भैंसे, बकरे आदि पशुओंका वध होता है। बड़े-बड़े नामधारी
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