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। किरातान् म्लेच्छकान् सर्वान् धर्मलाभेन तोषयेत् । सम्यग्दर्शनशुद्धस्य मातंगस्य वदेन्मुनिः।। । पापक्षय इति स्पष्टं न तस्यास्ति परो विधिः।
धर्मरसिक शास्त्र में भी लिखा है-- श्रावकाणां मुनीन्द्रा ये धर्मवृद्धिं ददत्यहो । अन्येषां प्राकृतानां च धर्मलाभमतःपरम् ॥ इस प्रकार शास्त्रोंको आम्नाय है।
२३५-चर्चा दोसौ पैंतीसवीं प्रश्न--श्रावक पुरुषोंको मुनियोंसे वा अजिकाओंसे नमोऽस्तु किस प्रकार करना चाहिये।
समाधान-मुनिराज गुरुको तो नमोस्तु करना चाहिये । ब्रह्मचारियोंको वंदना करनी चाहिये । अजिंकाओंको भी वंदामि करनी चाहिये । श्राधकोंको परस्पर इच्छामि वा इच्छाकार कहना चाहिये तथा लोकमें जुहार कहना चाहिये । अपने सज्जनोंको नमस्कार करना चाहिये तया योग्य-अयोग्य मनुष्योंको देखकर यथायोग्य उनका लिनय करना चाहियो ! जो दिशा तप और गण आदिसे श्रेष्ठ हों और अपनेसे आयुमें छोटे हों तो भी उनको बड़ा मानना चाहिये। यदि कोई जैनधर्मको धारण करनेवाला मनुष्य धर्मात्मा हो परंतु वह रोगी वा दुःखी हो तो मीठे वचन कहकर उसका समाधान करना चाहिये और उसे संतुष्ट करना चाहिये । जो मूर्ख अभिमानी जिनधर्मरहित कुवादी पुरुष हों उनको देखकर मौन धारण करना चाहिये। जो जैनधर्मको प्रभावना करनेवाले हैं उनसे नम्रोभूत होकर भक्तिके साथ मस्तक नवाकर मनोहर और मिष्ट वचन कहने चाहिये।। गृहस्थ श्रावकोंको इस प्रकार करनेका अधिकार है । सो ही धमरसिक ग्रन्थमें लिखा हैनमोस्तु गुरवे कुर्याद्वन्दना ब्रह्मचारिणे। इच्छाकारं समिभ्यो वन्दामि स्वर्णकादिष ॥१॥
आधाः परस्परं कुर्युरिच्छाकारं स्वभावतः । जुहारुरिति लोकेस्मिन् नमस्कारं स्वसज्जनाः॥ ॥ योग्यायोग्य नरं दृष्ट्वा कुर्वन्ति विनयादिकम् । विद्यातपोगुणैः श्रेष्ठो लघुश्चापि गुरुर्मतः॥
रोगिणो दु:खितान् जीवान जैनधर्मसमाश्रितान् ।।
संभाष्य वचनैमिष्टः समाधान समाचरेत् ॥ ४॥
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