________________
सागर १८]
समाधान--सपक श्रेणीवाले मुनीश्वरोंके छहों संहननों से कोई संहनन नहीं होता ।पयोंकि आपकश्रेणी-1 में बढ़नेवाले साधुओंके, अयोगिकेवली जिनराजके, चतुर्णिकाय वेवोंके, सातवें नरकमें रहनेवाले नारको जीवोंके, आहारक शरीरको धारण करनेवाले महर्षियोंके, एकैब्रिय जीवोंके और कार्मण कायके आश्रित रहनेवाले विग्रह गतिमें प्राप्त हुए जीवोंके, इन सात स्थानोंमें रहनेवाले जीवोंके शरीरमें वज्रवृषभनाराच आदि छहों संहननों मेंसे एक भी संहनन नहीं होता ऐसा सिद्धांतसार प्रदीपकमें लिखा है । यथासयोगे च गुणस्थाने ह्याचं संहननं भवेत् । केवले क्षपकण्यारोहणे कृतयोगिनाम् ॥१२८॥
अयोगिजिननाथाना देवानां नारकात्मनाम् ।आहारकमहर्षीणामेकाक्षाणांवषि च ॥१२६॥ । यानि कार्मणकायानि बजतां परजन्मनि। तेषां सर्वशरीराणां नास्ति संहननं क्वचित् ॥१३०॥
११२-चर्चा एकसौ बारहवीं प्रवन--आचार्य, उपाध्याय और साधुओंकी वंदना अजिका किस प्रकार करती हैं ? ।
समाधान--मणिकाएं अपनी गणिनीको ( सब अजिकाओंमें मुख्य गुराणीको ) भागे करती है अर्थात् गणिमोके पीछे-पीछे रहकर आचार्य, उपाध्याय, साधुओंकी वंदना करती है तथा इसी प्रकार उमसे पूछती हैं। और इसी प्रकार उनका धर्मोपदेश सुनती हैं। अजिकाएं अकेली आचार्य वा उपाध्याय वा साधुओंके सामने नहीं जातीं । सो ही मूलाचारप्रवीपका में लिखा है
गणिनीमग्रतः कृत्वा यदि प्रश्नं करोति सा अविकाएं आचार्यको पांच हाथ दूरसे बंदना करती हैं, उपाध्यायको छह हाप दूरसे बंदना करती हैं। और साधुओंको सात हाथ दूरसे बंदना करती हैं। सथा बन्दना भी पश्वशायो आसनसे करती हैं। जिस प्रकार आधे आसनसे गौ बैठकर सोती है उसी प्रकार अपने शरीरको नवाकर बंदना करती हैं। अजिकाए सर्व साधुओंको पांग अथवा अष्टांग नमस्कार नहीं करतीं । ऐसा मूलाधार प्रबोपको समाचार नामके अधिकारमें है [ ११८
पर्यटति प्रयत्नेन भिक्षायै गृहपंक्तिषु । वा प्रति मुनींद्राणां बंदनायै च भांतिकाः॥