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चर्चासागर [ २४४ ]
SA-223
प्रतिष्ठासारमें भी लिखा है-
कर्पूरजोंग कलवंगत्रुटि प्रयंगुकंकोल पूर्व कक रंवितचन्दनोधैः ।
दूरं स्फुरत्परिमलैर्जिनभर्तु रारात् विद्राणसौरभ मदैरपि चर्चयेन्त्रिम् ॥ अर्थात् “कपूर, लोंग, कंकोल आदि मिले हुए चन्दनसे भगवान के चरण-कमलोंको चर्चता हूँ ।" विकृत प्रतिष्ठापाठमें लिखा है
कर्परेलालवणादिव्यमिधितबलैः: सौगंधवानिताशेषदि ङमुखैश्चर्चयेज्जिनम् । अर्थात् " दिशाको सुगन्धित करनेवाले कपूर, इलायची, लोंग आदि थ्योंसे मिले हुए चंदन से मैं भगवान की पूजा करता हूँ ।"
भावसंग्रह में भी लिखा है-
चंद्रण सुगंध लेऊ जिणवर चरणंसु कुणड़ जो भविओ । mes a faraरियं सुहाय सुपधयं विमलं ॥
अर्थात् "जो भव्य भगवान के चरण कमलोंपर चन्दनका लेप करता है । यह बहुत उत्तम सुगन्धित वैकिकि शरीर पाता है ।
पद्मनंदिआचार्यकृत पद्यनंदिपंचविशतिकामें भी लिखा है-
यद्वचो जिनपतेः भवतापहारि नाहं सुशीतलमपीह भवामि तद्वत् । कर्पूरचन्दनमितीव मयार्पितं सत् स्वत्पादपंकजसमाश्रयणं करोति ।
अर्थात् जिस प्रकार भगवानके वचन संसारतापको नाश करनेवाले हैं उस प्रकारको शीतलता मुझमें
नहीं है परन्तु मैं ऐसा शीतल होना चाहता हूँ इसलिये चंदनको समर्पण करता हूँ । धर्मकीतिकृत नन्वोश्वर पूजामें भी लिखा है
कर्पूरकु कुमरसेन सुचन्दनेन ये जैनपादौ परिलेपयन्ति ।
तिष्ठति ते भविजनाश्च सुगंधगंधा दिव्यांगनापरिवृताः सततं वसंति ।
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