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वर्षासागर - २६४ ]
अनेक प्रकार के कष्ट सहते चोर, भूख, प्यास, ठण्डी, गर्मी, वर्षा आदिके दुःख सहते-सहते अनुक्रमसे समुद्र के किनारे पहुँचे। वहाँ जाकर वे दोनों ही जहाजमें बैठे परन्तु जहाजवालेने वहां ले जानेके लिये भाड़ा माँगा सो एक पुरुषने निकाल कर वे दिया परन्तु दूसरा मनुष्य तुम्हारे समान था सो विचार कर कहने लगा कि "भाई अनेक कष्ट सहकर तो यहाँ तक आये । अब यहाँ सबसे पहले अपने पाससे दाम देने पड़ेंगे रत्नद्वीप पहुँचनेपर न जाने रत्न मिले या न मिले। यदि न मिले तो दाम ही हो जायेंगे इसलिए इस देनेवाले समान हमसे तो दिया नहीं जाता। पहलेसे हो घाटा देनेवाले व्यापारको भला कौन करता है ? इसलिए यहाँ ही रहना ठीक है अपने पाससे द्रव्य देना ठीक नहीं" ऐसा विचार कर वह उस जहाजसे उतर पड़ा और निष्फल होकर उसने वापिस घरका रास्ता लिया । वैवयोगसे मार्गमें चोरोंने उसका सब धन लूट लिया वह दरिद्र हो गया और घर-घर भीख माँगता हुआ पेट भरने लगा। इस प्रकार अपनी आयु पूर्ण कर मर गया। इस प्रकार अत्यन्त कृपणतासे उसने लोकनिद्यगति पायी ।
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दूसरा मनुष्य जहाजका भाड़ा देकर रेस्नद्वीप पहुँचा वहांसे बहुमूल्य अनेक रत लाया तथा फिर थोड़ासा जहाजका भाड़ा देकर उस जहाजमें बैठकर अपने घर आ पहुँचा। वहाँ आकर उसने पूजा, दान तीर्थयात्रा के द्वारा अनेक प्रकारका पुण्योपार्जन किया और फिर अन्तमें स्वर्गारिक शुभगतिको पाकर तथा वहाँके अनेक सुखोंको भोगकर क्रमसे परमपदको प्राप्त हुआ । इस प्रकार यह उदाहरण है ।
आपके समान बुद्धिको धारण करनेवाले पुरुष थोड़ेसे पापके आरम्भके डरसे महापुष्यके कारण ऐसे दान, पूजाविकके फलको छोड़ देते हैं सो यह बुद्धिमानीका काम नहीं है। ऐसे पुरुष तुच्छ बुद्धिवाले कहलाते हैं ।
जिस प्रकार अग्नि से जला हुआ पुरुष उसकी शान्तिके लिए किसी अच्छे वैद्यके द्वारा बतलाये हुए क्षार पदार्थोंसे धोता है और फिर अग्निसे सेकता है। यदि वह पुरुष किसी कुवैद्यके कहनेसे उस जले हुएके ऊपर शीतल जल डाल दे तो महाउपद्रव उत्पन्न हो जाय । यदि अग्निसे जला हुआ वह पुरुष क्षार पदार्थसे धोने और अग्नि सेकसे डर जाय और उस कुवैद्यके वचन मानकर सुवैद्यके वचनोंको छोड़कर शीतल जलसे धो डाले तो उसकी मूर्खताका क्या पूछना ?
किसी एक मनुष्यने अपने किसी कुमित्रके कहनेसे अधिक भांग पी ली उसके नशेसे उसको बहुत दुःख
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