________________
| लोभमायाभिभूतानां नराणां भोगनाक्षिणम् । एषां प्राणिवधे धर्मो विपरीता भवन्ति ते ॥
भारतमें क्या और हिंसाका स्वरूप दिखलाते हुए लिखा हैपर्यासागर । अहिंसा सर्वभूतानां सर्वज्ञैः प्रतिभासिता । इदं हि मूल धर्मस्य शेषं तस्यैव विस्तरः ।। । उद्यन्तं शस्त्रमालोक्य विषादमयविह्वलाः।जीवाःकम्पति संत्रस्ता: नास्ति मृत्युसम भयम्॥
अर्थ-समस्त जीवोंको क्या पालना, सबको रक्षा करना अहिंसा है । यही सब धर्मोका मूल है। बाकी सब इसीका विस्तार है । भावार्थ-जिस प्रकार वृक्षके टिकमेका मुख्य कारण जड़ है। जड़ होनेपर उसकी शाखाएँ । प्रति शाखाएं होती हैं और शाखाएं आदि होनेपर उनपर फल लगते हैं उसी प्रकार धर्मरूपी वृक्षको जड़ या मूल दया है । दयाके सहारे ही यह धर्मरूपी वृक्ष टिका है । बाकी सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य आदि सब इसी दया । रूप मूलकी शाखाएं हैं तथा त्याग, व्रत, जप, तप, संयम, उपवास, तीर्थयात्रा, दान आदि भी सब इस दया। धर्मकी शाखाएं हैं। इस प्रकार यह क्या-धर्म सर्वोत्तम धर्म है ऐसा सर्वनदेवने कहा है। हिंसा इससे विपरीत है। देखो जिस समय चण्ड कोको करनेवाला, वुष्ट बुद्धिको धारण करनेवाला, हिंसाके भावरूप रौद्र परिणामों से अत्यन्त भयानक, महापतित, अधम, नीच, भ्रष्टाचारी कोई घातक वा शिकारी पुरुष पशु-पक्षियोंको देखकर उनके मारनेके लिये उनपर शस्त्र उठाता है उस समय उस चमचमाते हुए शस्त्रको देखकर अपने मरनेके भयसे वह पशु वा पक्षो अत्यन्त विषादको प्राप्त होता है अत्यन्त विह्वल हो जाता है, घबड़ा जाता है उसका शरीर कांपने लगता है तथा वह बहुत ही भयभीत हो जाता है । सो ठोक हो है क्योंकि इस संसारमै मृत्यु के समान
और कोई भय नहीं है । ऐसी हिंसाको न जाने लोग किस प्रकार कर डालते हैं। भारतमें लिखा हैह कंटकेनापि विद्धस्य महती वेदना भवेत् । चक्रकुतासिशक्त्याये छिद्यमानस्य किं पुनः॥
अर्थ-यदि अपने पैर आदि शरीरमें कहीं कांटा भी लग जाता है तो उससे हो बड़ो भारी देबना था 1 दुःख होता है फिर भला अभ्य जीवोंपर पक, भाला, बरछा, तलवार, शक्ति, तीर, गोलो आदि अनेक प्रकार
के शस्त्रोंके प्रहार करनेपर छिदते वा मरते हुए उन जीवोंको कितना दुःख होता होगा । अपने शरीरमें काटेका। भी महादःख होता है और उस कांटेसे बचने के लिये जता पहनते हैं या और अनेक उपाय करते हैं परन्त वे ही लोग अन्य जीवोंपर शस्त्रोंका प्रहार करते हुए उनके शरीरमें अनेक घाव करते हुए उनको मार डालते हैं ।