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उत्तर-भगवान अरहन्तवेव निर्दयी नहीं हैं किन्तु सबसे अधिक दयालु हैं। तथा वे इसने क्याल है । कि यदि जातिविरोधी जोव भी उनके समीप आ जाय उनके समवसरणमे आ जाय तो भगवान अरहन्तदेवके ।
प्रभावसे वे सब जीव अपना-अपना विरोध छोड़ देते हैं इससे बढ़कर और दयालुता कोई हो नहीं सकती। ] | परन्तु साथ ही अरहन्त देव सबसे बड़े पुरुष हैं और बोसराग हैं । जो पुरुष सबसे बड़ा और न्यायवान होता।
है वह किसीके लेन देनमें बोलता नहीं। यदि वह बोचमें बोले तो अन्यायी समझा जाता है। इसी प्रकार । समस्त संसारी जीव अपने-अपने किये हुये फर्मोक फलको भोगते हैं। कोका फल कभी छूट नहीं सकता। यदि छूटेगा तो उसीके ध्यानाविकसे छूटेगा। इसलिये उनके बीचमें पड़ना न्यायवान् महापुरुषोंका काम नहीं । है। इसके सिवाय भगवानके राग द्वेष वा मोह नहीं है। जो रागी वा द्वेषी है वे हो मारने वा बचानेका काम किया करते हैं और इसीलिये वे परमेश्वर नहीं कहे जा सकते। भगवान अरहंत देव वीतराग हैं। इसीलिये वे परमेश्वर कहे जाते हैं । वे अठारह दोषोंस राहत हैं और सर्वज्ञ हैं।
२०६-चर्चा दोसौ नवमी प्रश्न-कोई परवादी कहते हैं कि तुम्हारे निर्गन्ध गुरु प्रत्यक्ष रागीद्वषी हैं क्योंकि जो नवधाभक्ति । करता है उसके घर आहार लेते हैं और ओ उनको नमोस्तु आदि न करें उनके घर माहार नहीं लेते। यह एक । प्रकारका अभिमान वा राग, द्वेष समझना चाहिये ।
समाधान-वास्तबमें यह बात नहीं है। महामुनिराज छयालीस बोष, मत्तोस अन्तराय और चौवह मलोंको टालकर दिन में एक बार खड़े-खड़े आहार लेते हैं। जो जैनी नहीं है वह न तो आहारको विधि जानता है और न निर्दोष प्रासुक शुद्ध आहार तैयार कर सकता है । इसलिये वे मुनिराज नमोस्तु आदि पड़गाहनको
विधिको न देखकर अंतराय समझकर चले जाते हैं। रागद्वेष वा मानसे नहीं जाते। अपने गुरुको आये हुए । । समझकर भक्तिसे उठना, सामने जाना, प्रदक्षिणा देना, नमोस्तु कहना, पड़गाहन करना, पाद प्रक्षालन करना,
पूजन करना आवि आहार देनेको विधिको जैन शास्त्रोंके जाननेवाले श्रावकोंके बिना अन्यमती जानते नहीं। इससे उनके प्रासुक शुद्ध आहारकी अजानकारी भी स्वयं सिद्ध हो जाती है। इसलिये अन्तराय समझकर के मुनिराज चले जाते हैं । जो जैनो श्रावक बड़े-बड़े विद्वान् होकर भी इस विषिको नहीं करते उनके घर भी वे