________________
चर्चासागर
- ४८३ ]
के साथ दक्षिण देशको चला गया था। बारह वर्षका दुष्काल बीत जानेपर जब सब मुनि उज्जयिनी नगरीकी ओर चलने लगे तब भद्रबाहु स्वामी अपनी आयु निकट जानकर चन्द्रगुप्त के साथ वहीं रह गये । आयु पूर्ण होनेपर भद्रबाहु मुनि तो समाधिमरण धारणकर स्वर्ग पधारे और मुनिराज चन्द्रगुप्त यहीं रह गये। शेष बारह हजार मुनि धीरे-धीरे बिहार करते हुए उज्जयिनी नगरीमें आ पहुँचे । उन मुनियोंको आया जानकर ने पहलेके रहे हुए भ्रष्ट मुनि भी उनकी वंदना करनेके लिये आये परन्तु इन मुनियोंने उनको तपसे भ्रष्ट देखकर प्रतिवदना नहीं की । तथा उनको छेदोपस्थापना आदि प्रायश्चित्त लेनेके लिये उपदेश दिया । सो कितने ही साधु तो उन मुनिके उपदेशके अनुसार प्रायश्चित्त लेकर यथार्थ मुनि हो गये परन्तु रामल्याचार्य आदि मुनि वैसेके वैसे ही भ्रष्ट बने रहे। उन्हीं भ्रष्टोंमें एक स्थूल भद्राचार्य थे उन्होंने उन सब भ्रष्ट मुनियोंसे फिरसे दीक्षा धारण करनेके लिये कहा। तब सब भ्रष्ट मुनियोंने उस स्थूलभद्राचार्यको मारकर उसके मृतक शरीरको किसी एक गड्ढे में छिपाकर डाल दिया । वे स्थूलभद्राचार्य आर्त्तध्यानसे मरे थे, इसलिये मरकर व्यंतर देव हुए। उस व्यंतर देव ने विभंगावधिसे अपने पहले भवको सब बात जान ली और फिर उसने उन भ्रष्ट मुनियोंपर अनेक उपद्रव किये। तब उन सब भ्रष्ट मुनियों उस जोड़े जनस्कार किया और उसकी हड्डियाँ लाकर उनकी पूजा की तब कहीं जाकर उनको शांति मिली। तबसे ही ये लोग खम्मणहडी नाम रखकर फाटकी पट्टीको ( तखतीको ) अबतक पूजते हैं इसके सिवाय इन्होंने अनेक शास्त्र बनाये और आचारांग सूत्र आदि नाम रखकर उनमें बहुतसे शिथिलाचारोंका निरूपण किया तथा बहुतसी विपरीत बातोंका निरूपण किया और बहुतसी बातें दिगम्बराम्नायसे विरुद्ध लिखीं। इस प्रकार अर्द्धफाल्ककी प्रवृत्ति हुई ।
इसके कितने ही वर्ष बाद उज्जयिनी नगरीमें एक चन्द्रकोति नामका राजा हुआ । उसके चन्द्रलेखा नामकी पुत्री हुई थी। वह चन्द्रलेखा अर्द्धफाल्की गुरुओंके समीप पढ़ने लगी। वह क्रमसे यौवन अवस्थाको प्राप्त हुई और सोरठ देशके बलभीपुर नगरके राजा प्रजापालके पुत्र लोकपालको परणाई । किसी एक दिन उस चन्द्रलेखाने अपने पति से कहा कि हे स्वामिन् | मेरे गुरु कान्यकुब्ज देशमें हैं सो बहाँसे बुलाओ। राजाने उसके आग्रह से उनको बुलाया । वे चन्द्रलेखा के गुरु राजाके बुलानेसे आये । राजा लेनेके लिये उनके सामने गया परन्तु उनको भ्रष्टलिंग देखकर रानी चन्द्रलेखा से कहा कि तुम्हारे गुरु गुरु नहीं हैं। ये निग्रंथ नहीं हैं सग्रन्य हैं सो हमारे वंदना करने योग्य नहीं हैं। इनका भेष निवनीय भेष है तब रानी चन्द्रलेखाने अपने गुरुके पास
[ ४८३