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पासागर [ १९]
ताकों जो कोऊ खाहीं। ते नरक निगोदे जाहीं। ताते यह होम करीजे । तो योग्यकाज यह कीजे ॥ २५ ॥
सोरठा आई सांगानेर पत्री कामातें लिखी। फागुण चौदसि हेर सत्रहसै गुणचास सुदि ॥ २६ ॥
इस प्रकार पात्रोंका वर्णन किया। इसके सिवाय पुष्प न चढ़ाना, दीपक न जलाना आदि और भो मनःकल्पित बहुत-सी विपरीत बातें लिखी हैं। सो मनके बेगका कुछ प्रमाण नहीं है । सब कहाँतक लिखा
जाय । इस प्रकार उत्पत्ति तथा श्रद्धान, ज्ञान, आचरण आदिका थोड़ा-सा स्वरूप बतलाया। विशेष नाटक । संप्रहसे जान लेना चाहिये। म उसी समय बागरेमें २० ग्रानतरायजी पं० बनारसीदासजी, पं० रूपचंदमी, पं० चतुर्भुजजी, पं० कुमारपालजी, पं० भगवतीदासजी हुए थे। इन्होंने श्रावक धर्मको गौणता कर दी और अध्यात्मपक्ष मुख्य
मान लिया। इन्होंने अपने-अपने नामको प्रगट करने के लिए अपने-अपने नामके भाषा छन्दोबद्ध मन्य बनाये थे मचानसविलास, बनारसीविलास, ब्रह्मविलास आदि ग्रन्थोंको बनाकर अध्यात्मशैलीके भाई कहलाये।
इनके बाद जयपुर नगरमें एक गुमानीराम श्रावक हुए थे। उन्होंने तेरहपंथ आम्नायसे भी विपरीत से बातें बनाकर अपने नामका गुमान पंथ चलाया। इन्होंने बतलाया कि जलसे वस्त्र गीला कर प्रतिमाजीका प्रक्षाल किया जाता है सो भी नहीं करना चाहिये। इसमें भी पाप लगता है। इसके बदले सूके वस्त्रसे प्रतिमाजी पर लगी हुई धूलि आदि झाड़ लेनी चाहिये । सो कितने दिनों तक तो यह बात चली परन्तु निभ न सको। इसलिए फिर पीछे ये लोग थोड़े जलसे प्रक्षाल करने लगे। इसके सिवाय नव स्थापना पूर्वक दूरसे । पूजन करना चाहिये । पूजा पढ़नेवालोंको भी खड़े होकर पढ़ना चाहिये । बैठकर नहीं पढ़ना चाहिये । मंडल
की पूजा करनी हो तो उसके ऊपर थाल रखकर उसमें द्रव्य चढ़ाना चाहिये। मंडलके कोठेमें द्रव्य नहीं ! चढ़ाना चाहिये । यदि कोई इसका कारण पूछे तो कह देना चाहिये कि यह तो बिछोना है और केवल शोभा. के लिये है । यदि दो-चार दिन तकका पाठ हो तो प्रतिदिन जितनी पूजाएं हो जांय उतना ही शाति-पाठ कर विसर्जन कर देना चाहिये और द्रव्य उठा लेना चाहिये । यदि शास्त्रोंका स्वाध्याय करना हो तो जिनप्रतिमा
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