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पांसागर
। पुनरकविमानं सः शिल्पिभिर्मणिकांचनैः। जिनेन्द्र भवनोपेतं कारयामास ह्यभुतम् ॥७॥ चतुर्मुखं रथावर्त सर्वतोभद्रमूर्जितम् । कल्पवृक्षं च दीनेभ्यो ददद्दानमवारितम् ॥७॥ तद्विलोक्य जिनाः सर्वे तत्प्रामाण्य स्वयं च तत् ।
स्तोस्तुमारेभिरे भक्त्या पुण्याय रविमण्डलम् ॥ ७६ ।। । अहो लोका प्रवर्तन्ते नृपाचारेण भूतलो सद्विचारे न जानन्ति कार्याकार्य शुभाशुभम् ॥८॥ तदा प्रभृति लोकस्मिन् वभूवाकोपसेवन । मिथ्याकारं च मृढानां विवेकविकलात्मनाम् ॥१॥
इसके सिवाय जैनमतमें भी विमो निष्पाला उरला है उसोका दर्शन करते हैं । सिरिपुज्जपोदसिस्सो दाविडसंघस्स कारण दुट्ठो।णामेण वजणंदी पाहुणवेदी महासत्थो॥१॥ अप्पासुयचणयाणं भक्खण दोसो ण वज्जिओ मुणिहिं।
परिरइयं विवरीयं विसेसियं वयण वोज्ज ॥ २ ॥ वीएसुणस्थि जीवो ऊणवणं णस्थि फासुयं णस्थि ।।
__ सावज गहु मण्णइ ण गणइ गिहकप्प अढे ॥ ३ ॥ कच्छे खेतवसही वाणिज्जं कारिऊण जीवंतो। व्हाइंतो सीयलणीरे पावं पउरं समजेरी ॥
अर्थ-श्रीपूज्यपाद मुनिका वचनंदि नामका एक दुष्ट शिष्य था उसने प्राभूतवेदी नामका महाशास्त्र । बनाया और द्राविड नामके संघको स्थापना करनेके लिये अनेक प्रकारका विपरीत कथन किया । उसने बतलाया, कि कम्चे धनोंके खानेमें सचित्त द्रव्यके समान पाप नहीं लगता अर्थात् कच्चे चने में जीव नहीं है वह अजीव है, अचित्त है इसलिये भक्षण करने योग्य है । इस प्रकार वचन स्थापन कर विपरीतमिथ्यात्यको पुष्ट किया। इसी प्रकार बीजमें भी जीवका निषेध किया। उसने बतलाया कि गृहस्थोंको अन्न, जल, खेत, व्यापार आबिके । कामोंमें होनेवाले थोडेसे पाप गिनने ही नहीं चाहिये । शीतल कच्चे जलसे स्नान करनेमें कोई पाप नहीं है इस प्रकार उसने बहुत कुछ विपरीत मिथ्यात्वका प्रचार किया।
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