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पर्चासागर [ ४७६ ]
सिरिवीरसेणसिस्सो जिणसेणो सयलसस्थ विण्णाणी।
सिरि पउमणंदी पच्छा चउसंघ समुद्धरण धीरो ॥ १॥ तस्स य सिस्सो गुणवंतो गुणभद्दो दिब्बणाणपरिपुण्णो ।
परमावुद्धी सामी महातवो भाव लिंगोय ॥२॥ तेण पुणोवि य मञ्चु णाऊण मुणी स विणयसेणस्स।
सिद्धतं घोसित्ता सयमत्थं जाण लोयस्स ॥३॥ आसी कुमारसेणो णंदि पडविणयसेण दिक्खीय ।
सण्णासभंजणेणय अगहिय पुण दिक्खिओ जाऊ ॥ ४॥ परिवज्जिऊण पीछे चमरं चित्तण मोहकालदण । ऊमग सकिालसं वागविसयेसु सव्वेसु॥ इत्थीणं पुण दिक्खा खुल्लयलोयस्स वीरचरियंत। ककस्सकेसगहणं छठे गुणव्वदं णाम॥ आयम अत्यपुराणं पायच्छित्तं च अण्णहा किंपि।विरइत्ता मिच्छत्तं पट्टियं मुढलोएसु ॥७॥ सोसवणसंघवज्झो कुमारसेणो हु समयमिच्छत्तो । चत्तोबसमो रुद्दो कट्टं संघ परवेदी॥८॥ । सत्तसये तेवपणे विक्कमरायस्स मरणपत्तस्स । गंदियरे बरगामे कट्ठो संघो मुणेयवो ॥६॥ गंदियरे वरगामे कुमारसेणो य मिच्छविण्णाणी। कट्ठोदसणभट्टो जादोसल्लेहणा काले ॥१०॥
अर्थ-राजा विक्रमके मरण होनेके सातसौ वर्ष बाद नंदिवर नामके गांवमें विनयसेन मुनिके शिष्य कुमारसेन भुनिने पहले अपने संन्यासका भंग किया फिर मूलसंघसे दूसरा काष्ठसंघ नामका एक संघ स्थापन किया । उसका क्रम इस प्रकार है। श्री आचार्य बोरसेनके शिष्य श्री जिनसेनाचार्य हुए। वे जिनसेनाचार्य समस्त शास्त्रोंके जाननेवाले थे। उनके बाद श्री पपनंदि नामके आचार्य हुए जो चारों प्रकारके संघको धारण करने के लिये बड़े धोर वीर थे। उनके शिष्य श्री गुणभद्राचार्य थे जो बड़े ही मुणवान् थे, दिव्यज्ञानसे परिपूर्ण
थे, परमबुद्धिके स्वामी थे, महा तपस्वी थे और भालिंगी थे। गुणभद्राचार्य के शिष्य विनयसेन थे जो समस्त । पदार्थोको जानते थे। उन विनयसेन मुनिका शिष्य कुमारसेन नामका मुनि हुआ। जिसने गुरुसे संन्यास धारण