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पर्चासागर [७७
! किया और फिर उसका भंग किया। तब तर उसने अगृहीत बीक्षा ली अर्थात् गुरुके पास छेदोपस्थापना किये। बिना हो स्वयं वीक्षा ले ली। उसने मयूर पीछीका त्याग कर दिया और सुरागायके पुछके बालोंको पोछी ले । ली। उसने उन्मार्ग अर्थात् सनातन मोक्षमार्गसे विरुद्ध काष्टसंघका स्थापन किया और मूलसंघ दिगंबराम्नायके विरुद्ध कितनी ही बातोंका प्रचार किया। उसने स्त्रियोंको पुनः दोक्षा लेनेका अधिकार विया । अल्लक, धायकोंको वीरचर्याका अधिकार दिया और कठोर केशोंके ग्रहण करनेका विधान बतलाया। इस प्रकार उसने और भी कितनी हो विपरीत बाते स्थापन की। इसके सिवाय आगम, शास्त्र, पुराण, प्रायश्चित्त आदि शास्त्रोंमें भी अन्यथा वर्णनकर अज्ञानो लोगों में प्रवृत्ति की। इस प्रकार कुमारसेन मुनिने मुनियों में रुनके समान प्रकाष्ठ-1 संघको वत्ति की और यह काष्ठसंघ मलमासे अलग स्थापन हary ! इसके कुछ वर्ष बाद इसी काष्ठसंघमें और भी विपरीतता हुई। सीताको जनककी पुत्री बतलाया, अभिषेकमें पहले घृताभिषेक बतलाया। काष्ठको प्रतिमा बनाना, सीताका दंडकवनमें हरण होना, पूजामें अष्टद्रव्यों में अक्षतके पहले पुष्प चढ़ाना, पुष्पोंके बाद अक्षत
चढ़ाना। श्रीनेमिनाथका द्वारावती में जन्म होना इत्यादि किसनो हो बातें मूलसंघसे विरुद्ध स्यापन की। इस । प्रकार संक्षेपसे काष्ठसंघका वर्णन किया।
इसी प्रकार विक्रम सम्वत् सात सौ पांचमें कल्याण वर नामके नगरमें श्वेतांबर मतमेसे एक पापुलोय । संघ प्रगट हुआ। इन्होंने अपने साधुओंका स्वरूप तो नग्न ही रक्खा पर आचरण सब श्वेतांबरोंके समान
शिथिल हो रक्खे । इसका विशेष वर्णन भद्रबाहु चरित्रमें लिखा है । यथा। कल्लाणे वरणयरे सत्तसयं चउत्तरे जादे। जावलियसंघभावो सिरिकलसादोवि सेवडादो॥
इसके दो सौ वर्ष बाद मथुरा नगरमें माथुरान् नामके गुरुके शिष्य रामसेन नामके साधुने निपिच्छ संघ स्थापन किया। उसमें उन्होंने कमंडलु और पोछोके ग्रहणको भी परिग्रह बतलाया । सो हो षट्पाहुडमें। लिखा हैजिहिजाइरूपसरसो तिलतुसमत्तसु अत्थेसु । जहि लइ अप्प बहुलं तत्तो पुण जाइ णिगोदं ।।
इत्यादि पचनोंको ग्रहणकर मुनिका स्वरूप पोछीरहित बतलाया तथा सम्यक्प्रकृति मिथ्यात्यको स्थापना करते हुये उसने ममत्व बुद्धिसे प्रतिमा भी विपरीतता को स्थापन को । प्रतिष्ठा रहित प्रतिमाको हो पूज्य ।