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चासागर
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किसी एक दिन अयोध्या नगरके राजा सामान्य भायामकी प्रतिभाको पूजन करनेम सन्देह हुआ था वह ॥ सोचने लगा था कि यह भगवान की मूर्ति धातु और पाषाणको बनी हुई है। ये सब मूतियां जड़ हैं अचेतन हैं ।
और अजीव हैं । इनसे स्वर्ग मोक्षको प्राप्ति किस प्रकार हो सकती है। इसी सन्देहमें पड़कर उसने मुनिराजसे, पूछा। मुनिराजके उपदेशसे उसका सब सन्देह दूर हो गया। उस समय उन मुनि महाराजने उस राजाको तीनों लोकोंमें विराजमान श्रीजिन मन्दिरोंका और उनमें विराजमान श्रीजिन प्रतिमाओंका स्वरूप बतलाया
उन्होंने सूर्य, चन्द्रमा आदि ज्योतिषी देवोंके विमानोंमें विराजमान श्रीजिनमन्दिर और जिन प्रतिमाका वर्णन । सबसे पहले किया था फिर अन्य सब मन्दिर और प्रतिमाओंका वर्णन किया था। उसको सुनकर वह राजा उस ।
दिनसे प्रतिदिन सर्यबिम्बमें विराजमान जिनप्रतिमाको प्रणाम करने लगा और अर्घ देकर पूजन करने लगा। तथा । अन्य जिन प्रतिमाओंकी पूजा भी बह बड़ी श्रद्धा और भक्सिके साथ करने लगा। उसने सूर्यके विमानके आकारका एक नवीन मन्दिर बनवाया उसमें जिनप्रतिमा विराजमान की और फिर उनकी पूजन वह बड़ी भक्तिके साथ प्रतिदिन तीनों समय करने लगा। लोगोंने उस समय राजाके वास्तविक अभिप्रायको तो समझा नहीं केवल राजाको रोतिको देखकर सूर्यको ओर पूजनके लिये जलांजलि देकर निस्य अर्घ देने लगे। इस प्रकार । राजरीतिको देखकर सूर्यको अर्घ देना चल पड़ा जो आजसक चला आ रहा है । लिला भी है 'यथा राजा तथा प्रजा' इस प्रकार यह विपरीत मिथ्यात्व चला है । सो हो पाश्र्वनाथपुराणमें लिखा है- . इत्यादि हेतुदृष्टान्तैरुत्पाद्य निश्चयं शुभम् । भूपतेः श्रीजिनार्चादौ धर्मपूजादिकं तथा ॥७॥ तत्कथावसरे लोकत्रयचैत्यालयाकृतीः। सम्यग्वर्णयितु बांच्छन् विस्तरेण महाद्भुतान्।।७१|| प्रागादित्यविमानस्थजिनेन्द्रभवनं महत् । स्वर्णरत्नमयं दिव्यं महाभूत्युपलक्षितम् ॥७२॥ भानुकोट्यधिकासीत्र तेजो बिम्बौघसंभृतम्। मुनीशो वणयामास सूर्यदेव नमस्कृतम् ॥७३॥ कृत्वा साधारणी भूर्ति महतीं जिनधामजाम्। श्रुत्वा वहन पर श्रद्धामानन्दोपि मुदान्वितः दिनादौ च दिनान्ते श्रीजिनेशां रविमंडले। स्वकरो कुड्मलीकृत्य करोति स्तवनं परम् ॥७॥ # आनम्रमुकुटो धीमांस्तद्गुणमामरंजितः । धर्ममुक्त्यादिसिद्धयर्थ ज्ञानादिगुणसंचयैः ॥७॥