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चासागर
कोई-कोई श्रावक भगवान पार्श्वनाथजीको प्रतिमापर फणोंका चिन्ह होते हुए प्रक्षाल, अभिषेक, पूजन, दर्शन, वंदन आवि करते समय मनमें अरुचि लाते हैं, कितने ही श्रावक प्रक्षाल करते समय फणाको छोड़ देते हैं। तथा कोई-कोई श्रावक फणा सहित प्रतिमाको पूजन वा वर्शन नहीं करते सो ठोक नहीं है। उनकी यह क्रिया शास्त्रविरुद्ध और अपने मनको कल्पनाके
कदाचित् कोई यह कहे कि हम तो परीक्षाप्रधानी हैं, आज्ञाप्रधानी नहीं हैं तो इसका समाधान यह है कि धर्मध्यानके चार भेव वा दश भेद बतलाये हैं उनमें आज्ञाविचय नामका भेद सबसे पहले और सबसे मुख्य १. उत्तरपुराणमें लिखा है--
ततो भगवतो ध्यानमाहात्म्यान्मोहसंक्षय । विनाशमगतिश्यो विकार: कमठःविषः ॥
अर्थ-तदनन्तर भगवान ध्यानमें तल्लीन हये ध्यानके माहात्म्यसे मोहनीयकर्म नष्ट हो गया और मोहनीयके नाश होनेसे कमठ शत्रुका सब विकार नष्ट हो गया।
इसके पहले उत्तरपुराणमें लिखा हैभारमस्थावावृत्य तत्पत्नी च फणाततेः। उपर्युच्चैः समुदत्य स्थिता वन्चातपच्छवम् ॥१४०॥ पर्व ७३ ॥
अर्थात्-उसकी देवो पद्मावती अपने फणाओंके समूहका वजमयो छत्र बताकर बहुत ऊंचा ऊपर उठाकर खड़ी रहो।
इससे सिद्ध होता है कि वह वधमय फणा पयावतीने बनाया। तथा उसो अवस्थामें उनको केवलज्ञान हुआ क्योंकि जब तक वह उपद्रव दूर नहीं हुआ था तबतक तो वे धरणेन्द्र पद्मावती हट हो नहीं सकते थे । तथा उन्होंने जो फण किया था सो बहुत ऊंचा किया भगवानके शरोरसे उसका सम्बन्ध नहीं था। तथा वह उपद्रव मोहनोय कर्मके नाश होने के बाद हुआ है। इससे सिब है कि वह फणा मोहनीय कर्मके नाश होने तक था। तथा मोहनीय कर्मके नाश होनेपर अन्तर्मुहर्तमें हो केवलशान हुआ है । आगे इसो उत्तरपुराणमें लिखा है कि केवलज्ञान होने के बाद वह संवर ज्योतिषो देव पाांत हो गया। यथा
तवा केवलपूजां व सुरेन्द्रा निरवर्तयन । संवरोपात्तकालाबिलब्धिः शममुपागमत् ॥ १४५ ।।
अर्थात् केवल ज्ञान होनेपर इन्द्रोंने पूजा की और काललब्धि प्राप्त होनेसे संवर ज्योतिषी भी शान्त हो गया। इससे सिद्ध होता है कि केवलशान प्राप्त होने तक वह ज्योतिषी शान्त नहीं हुआ है। ऐसी अवस्थामें पद्मावती देवी भी उसी तरह रही होगी। यह बात उत्तरपुराणमें लिखी हो है कि पद्मावतीने यह फणा बहुत ऊँचा लगाया था और भगवानके शरीरसे उसका कोई संबंध नहीं था तथापि कमसे कम मोहनीय कर्मके नाश होने तक तो फणा था ही। अब उसके हटानेका समय वही होना चाहिये जो इन्द्रादिक देवोंके आसन कंपायमान होनेका या आनेका है। जैसा कि १४५ श्लोकसे सिद्ध होता है । इस प्रकार यह मूर्ति केवलसान उत्पन्न होनेके समय की ही है।
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