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सागर
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पुरुषोंमें कमी हुई है ।' जिनशासनमें भो वस्त्रोंको धारण करनेवाले श्वेताम्बरोंके साधु हुये है श्वेताम्बरोंने और भी कई प्रकारको विपरीतता चलाई है सो सब काल बोधका प्रभाव है ।
इसके सिवाय तीर्थंकरोंको उपसर्गका होना, चक्रवर्तीका मानभंग होना, कुवेवोंकी मूर्ति या मठ स्थापन होने और कुशास्त्रोंका बहुत प्रचार होना आदि सब काल दोष है । इस प्रकार इस काल दोषका वर्णन संक्षेप से कहा है । यदि इसका विस्तार जानना हो तो त्रिलोकप्रज्ञप्तिले जानना चाहिये ।
- प्रश्न --- श्रीपार्श्वनाथ के तपश्चरण करते समय उपसर्ग हुआ था और उपसर्गके समय घरणेन्द्र पद्मायतीने उनके मस्तकपर उस उपसगंको दूर करनेके लिये सर्पका फणा बनाया था । तदनन्तर भगवानको केवलज्ञान उत्पन्न हुआ था । केवलज्ञानके समय वह कना नहीं रहा था तथा भूर्ति केवलज्ञानके समयकी बनाई जाती है और उस समय उनके मस्तकपर फणा या नहीं। फिर अब उनकी मूर्तिपर फणा क्यों बनाया जाता है ?
समाधान — केवलज्ञानका स्वरूप गर्भ, जन्म, तप इन तोनों कल्याणोंके बिना नहीं होता । तुमको जो केवल केवलज्ञानकल्याणको मूर्ति प्रतिभासित होती है सो नहीं है किन्तु वह प्रतिमा गर्भ, जन्म, तप, ज्ञान, निर्वाण इन पाँचों कल्याणमय है । प्रतिष्ठाके समय भी पाँचों कल्याणकों की प्रतिष्ठा होती है । तप कल्याणकी विधि पार्श्वनाथकी प्रतिमापर फणावली जो होनी चाहिये इसी अभिप्रायको लेकर प्रतिमाके निर्माण करते समय धातु वा पाषाण में कनाका चिह्न बनाया जाता है । बननेके बाद वह दूर हो नहीं सकता। तथा प्रतिष्ठाके समय पहले के पंच कल्याणकोंके संस्कार सब होने हो चाहिये । प्रतिमाजी तभी प्रतिष्ठित कहलायेंगी । ऐसी प्रतिष्ठित प्रतिमाएँ मंदिरोंमें विराजमान रहती हैं इसी कारण उनपर फणाका चिह्न रहता है। यह स्म रण रखना चाहिये कि समस्त तीर्थंकरोंको प्रतिमाएँ पंच कल्याणकमयो ही होती हैं । इसीलिये उनका पंचामृताभिषेक किया जाता है तथा जल-गंधाविकसे स्नान वा विलेपनादिक कर पूजनादिक किया जाता है। जो कोई ज्ञानकल्याणकमय वा तप कल्याणकमय मानते हैं सो सब मिथ्या है।
१. शांतिनाथ, कुन्युनाथ, अरनाथ ये तीर्थकर भी थे और चक्रवर्ती भी थे। इस प्रकार तिरेसठ शलाका पुरुषोंमें तोन जीबों को कमी हुई है ।
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