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तोसरा, चौषा, पांचवां, छठा तथा उत्सर्पिणी कालका छठा, पांचवा, चौथा, तीसरा, दूसरा, पहला इस प्रकार I इन दशों क्षेत्रोंमें कालचक्र बराबर फिरता रहता है तथा इन्हीं कालोंके द्वारा उनमें वृद्धि-हास सवा होता रहता है
है। इसी प्रकार समस्त विजयार्द्ध पर्वतोपर तथा प्रत्येक क्षेत्रके पांचों म्लेक्षस्यग्डोंमें सवा चौथा काल रहता है। पर्चासागर
। उसमें भी इतना अन्तर है कि विदेड क्षेत्रके विजयाडौंको छोड़कर बाकीके भरत, ऐरावत सम्बन्धी वशों विजया?में चतुर्थकाल होनाधिक रूपसे रहता है । अर्थात् उनमें तीर्थरोंकी आयु कायके समान होनायिकता होती रहती ।
है । पहले तीर्थङ्करके समय पाँचसौ धनुषका शरीर और एक करोड़ पूर्वकी आयुवाले विद्याधर होते हैं । तथा । । अन्तिम तीर्थङ्करके समय एक धनुषका शरीर और एकसौ बीस वर्षकी आयुवाले विद्याधर होते हैं। बाकोके ।
विदेह क्षेत्र सम्बन्धी एकसौ साठ विजयार्द्ध निवासी विद्याधरोंको आयु काय उत्कृष्ट श्री सीमंधर स्वामीके । समान सदा रहती है। वहाँकी आयु काय होनाधिक नहीं होती।
विदेहक्षेत्रको एकसौ साठ नगरियोंमें तथा पंच मेरु सम्बन्धो वश कनकाचल पर्वतों पर सदा मोक्षमार्ग-1 का प्रवर्तक चौथा काल रहता है अर्थात हुन क्षेत्रों में कभी दसरा काल नहीं बदलता, सवा चौया कालही रहता। है । पाँचों मेरु पर्वतको दक्षिण, उत्तर दिशाको ओर जो वेवकुरु और उत्तरकुरुको दश भूमियां हैं जिनमें सदा उत्कृष्ट भोगभूमि रहती है उसमें सदा पहला काल ही रहता है। पांचों मेरु सम्बन्धी पांचों हरिक्षेत्रोंमें तथा पांचों रम्यक क्षेत्रोंमें सदा मध्यम भोगभूमि रहती है और सदा दूसरा काल रहता है । इसी प्रकार पांचों हैमवत क्षेत्रोंमें और पांचों हरण्यवत क्षेत्रोंमें सदा जघन्य भोगभूमि रहती है और सदा तीसरा काल रहता है। मानुषोत्तर पर्वतसे आगे नागेन्द्रनामके पर्वत तक मध्यके असंख्पात द्वीप समुद्रोंमें सदा जघन्य भोगभूमिको रचनाके समान तीसरा काल रहता है । नागेन्द्र पर्वतसे आगे स्वयंभूरमण नामके अन्तके द्वीपके आधे क्षेत्रमें सदा पांचवां काल रहता है । इस प्रकार मध्यलोकमें कालको किरनका स्वरूप है । सो हो सिद्धांतसार बीपकके नौवें
अधिकारमें लिखा है। भरतैरावतक्षेत्रेषु सर्वेषु द्विपंचसु । द्विषटकालाः प्रवर्तन्ते वृद्धिहासयुताः सदा ॥३५॥ । विजयार्द्धनगेष्वत्र म्लेक्षखंडेषु पंचसु । चतुर्थकाल एवास्ति शाश्वतो निरुपद्रवः ॥३५५॥ । किंतु चतुर्थकालस्य यदा स्याद्भरतादिषु। आयुःकायसुखादीनां वृद्धि हासाश्च जन्मिनाम् ॥