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पर्यासागर [१२३ ]
करना हो धर्म है और प्राणियोंका वध करना ही अधर्म है इसलिये धर्मात्मा लोगोंको समस्त प्राणियों पर दया अवश्य पालन करनी चाहिये । जो यज्ञ प्राणियोंका बध करनेसे होता है वह कभी या नहीं कहा जा सकता। क्योंकि प्राणियोंका बध करनेवाला हिंसक समझा जाता है । और हे युधिष्ठिर ! यज्ञ वही कहलाता है जिसमें समस्त प्राणियोंपर दयापालन की जाय, किसी भी प्राणीको हिंसा न की जाय।
इसी भारतके शांतिपर्वमें लिखा है-- इन्द्रियाणि पशून् कृत्वा वेदी कृत्वा तपोमयीम्।अहिंसामाहुतिं कुर्याच्चात्मयज्ञं यजामहे ॥
अर्थ-पांचों इन्द्रियां ही होम करनेको सामग्री बनाना चाहिये, तपश्चरणको वेवी बनाना चाहिये और अहिंसाको आहुति देनी चाहिये। इस प्रकार आत्मयज्ञ सवा करते रहना चाहिये ।
इस संसारमें देखो बलियान लेनेवाले देवता भी फैसे निर्दयो हैं जो हाथी, घोड़े, सिंह आदिका बलि तो नहीं लेते किन्तु केवल बकरेका होम बतलाते हैं । सो ठोक ही है। वैव भी दुर्बलोंका हो घात करता है। सो ही लिखा है-- __ अश्वं नैव गजं नैव सिंहो नैव च नैव च । अजापुत्रं बलिं दद्यात् दैवो दुर्बलघातकः ॥
जो देवता बलिदान चाहते हैं वे देवता भी निर्दयो समझने चाहिये और उनका कर्ता भी महापापी समझना चाहिये । लिखा भी है__ यज्ञं कृत्वा पशून हत्वा कृत्वा रुधिरकर्दमम् । यद्यष गम्यते स्वर्ग नरके केन गम्यते ॥
अर्थात्-यज्ञ करनेवाले यज्ञमें अनेक पशुओंको मार कर और रुधिरकी कीचड़ मचा कर यदि स्वर्ग । चले जाते हैं तो फिर वे नरफमें किन-किन कामोंके करनेसे जायेंगे। भावार्थ-ये सब काम तो नरकमें जानेके कारण हैं यदि इनको स्वर्गका कारण मान लिया जायगा तो फिर नरकका कारण संसारमें कुछ मिलेगा ही नहीं अथवा अहिंसा, सत्य आदिको नरकका कारण मानना पड़ेगा, परन्तु ऐसा हो नहीं सकता इसलिए यज्ञादिकको कल्पना सब व्यर्थ है। भारतके शांतिपर्वमें कृष्ण अर्जुनक संवायके समय लिखा है कि लोभी, मायाचारी, । कपटी और इंद्रियोंके विषय-भोगोंके लोलुपी मनुष्योंने केवल अपने स्वार्थके लिए जीवोंकी हिंसामें धर्म माना है
सो उनको यह विपरीतता है । सो ही लिखा है