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मलागर
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। रक्षा करनी चाहिये । उनकी क्याके लिये क्षत्रियोंको उचित है कि वे सिंहादिक दुष्ट जीवोंके शब्द सुनते हो। भोजन छोड़कर उनके बचानेके लिये जाय । जब यहाँ तक जीवोंको दयाका विधान है तो फिर वेदांतियोंका। कहा कभी सत्य नहीं हो सकता।
दूसरी बात यह है कि जिस प्रकार गाय, ब्राह्मण आविको हिसा फरनेमें महापाप होता है और उनकी रक्षा करनेमें महाधर्म होता है उसी प्रकार अन्य जीवों को हिंसा करने में भी महापाप होता है और उनको क्या पालन करने वा रक्षा करने में महाधर्म होता है। वास्तव में देखा जाय तो समस्त जोधोंको दया पालन करना हो सबसे बड़ा धर्म है। पाप कार्य करनेसे यह जीव नरक, तिर्यच गति पाता है । पुण्य कार्य करनेसे मनुष्यगति पाता है और धर्म साधन करनेसे स्वर्ग, मोक्ष पाला है। यह जो शास्त्रोंमें लिखा है सो कभी व्यर्थ नहीं हो सकता । और इसीलिये तेरा कहना कभी सत्य नहीं हो सकता।
यदि यह मान लिया जायगा कि जीव सब एक समान हैं क्योंकि सब ब्रह्मस्वरूप हैं तो फिर माता, पुत्री, बहिन, स्त्री आदिका ब्रह्म भी एक ही माना जायगा और फिर सबके साथ विषय-सेवन करना भी एकसा ही माना जायगा परन्तु ऐसा कहना वा मानना अनोंका उत्पन्न करनेवाला है। इसलिये इस प्रकार कहने वाला वेदांतमत कभी ठीक नहीं हो सकता।
। यहाँपर कोई आयुर्वेदी कहता है कि यह जीव अपनी आयु पूर्ण होनेपर ही मरता है किसीके मारनेसे नहीं मर सकता । आयु पूर्ण होनेपर चाहे कितने ही यन्त्र, मन्त्र किये जाय परन्तु वह बच नहीं सकता । इससे सिद्ध होता है कि आयु पूर्ण हुए बिना कोई मर नहीं सकता। हो, जिसको जैसा निमित्त मिलना होता है या जैसी होनहार होती है जिस प्रकार मृत्युका होनहार निश्चित होता है उसी प्रकार वह जीव मरता है। जिसकी आयु अधिक होती है जो दीर्घ आयु वाला होता है वह बिना प्रयत्नके भी बच जाता है। बचामेसे कोई जीव बचता नहीं और मारनेसे काई मरता नहीं। भारमे वा मचानेका कर्तव्य करना सब झूठा है । सो ही लघु। चाणिक्यमें लिखा हैभवितव्यं यथा येन नासो भवति चान्यथा। नीयते तेन मार्गेण स्वयं वा तत्र गच्छति ॥६॥
अर्थात्-जो होनहार होता है वह अन्यथा नहीं हो सकता। जिसका जहाँ जैसा होनहार होता है वह
चमचमान्यनियमानायला
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