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सागर
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विचार करनेकी बात है कि यह जीव पंच तत्वोंके मिलनेसे ही उत्पन्न होता है तथा पंच तत्वोंके अलग अलग हो जानेसे जीव उन्होंमें मिल जाता है। तो फिर रसोईघर में जिस बटलोई में बाल पकती है उसमें पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, आकाश आदि सभी तस्व मिले हुए हैं फिर उनमें जीव क्यों नहीं उत्पन्न हो जाता ? चौका, चूल्हा, बटलोई आदि पृथिवी तस्त्र है । बटलोईमें जो जल भरा है वह जल तत्व है। अग्नि जलती है जल, बटलोई आदि सब अग्निरूप हो जाता है वही अग्नि तत्त्व है । वायु सब जगह भरी हुई है और आकाश सब जगह व्याप्त है ही । इस प्रकार वहाँपर पांचों तत्त्व उपस्थित हैं। फिर वहाँपर जीव उत्पन्न क्यों नहीं हो जाता ? परन्तु कहीं किसी भी रसोईमें जीव उत्पन्न नहीं होता इससे सिद्ध होता है कि जीव पंचतत्वसे उत्पन्न नहीं होता किन्तु जुदा पदार्थ है ।
कदाचित् कोई यह कहे कि तत्त्वोंमें तो जीव नहीं है। तत्त्व तो पुद्गल स्वरूप है, जीव इन तत्वोंसे जुदा है । सत्त्व जड़ हैं और जीव चैतन्य स्वरूप है। परंतु उसका यह कहना भी मिष्या है क्योंकि इसमें भी हिंसाकी ही पुष्टि होती है। जब तत्व, तथ्य में मिल जाता है और जीव जुदा रहता ही है। तब फिर जीवके मारने से हिंसा भी नहीं होती और उसके बचानेसे दया भी नहीं होती। क्योंकि जब जीवका विनाश ही नहीं होता, केवल तस्व तत्वमें मिल जाता है। तो फिर जीवका विनाश हुए बिना ही हिंसा किस प्रकार सिद्ध हो सकती है । इस प्रकार महादोष उत्पन्न होता है। इसलिये ऐसा मानना भी हिंसाको सिद्ध करता है। इससे दयाका पालन नहीं होता। यथा और भी अनेक दोष उत्पन्न होते हैं। इसलिये ऐसे मिथ्या वचन कहने में कुछ प्रयोजन सिद्ध नहीं होता। जीवोंको दया पालन करना ही सत्य धर्म है। जो लोग हिंसाको धर्म कहते हैं सो सब मिया है । शास्त्रोंमें लिखा है ।
आचारः प्रथमो धर्मः सर्वधर्मे प्रकीर्तितः ।
अर्थात् अपने आत्माको शुद्ध रखना, स्नान, सन्ध्यादिक करना और मद्य, मांस आदि अभक्ष्य पदार्थोंका भक्षण न करमा हो आधार है। यह आचार समस्त धर्मोसे श्रेष्ठ धर्म है। परन्तु ऊपर लिखे हुए आयुaath सिद्धांतके अनुसार यह सर्व व्यर्थ हो जाता है और यह आचाररूप धर्म कभी व्यर्थ हो नहीं सकता इसलिए आयुर्वेदका कहना ही मिथ्या है ।
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