________________
वर्षासागर ४२६ ]
यदि प्राणिव धर्मः स्वर्गश्च खलु जायते । संसारमोचकार्ना तु कुतः स्वर्गोभिधीयते ॥ इससे सिद्ध होता है कि जीवोंकी हिंसा करनेवाले, मांस भक्षण करनेवाले वा और भी सप्त व्यसनोंका सेवन करनेवाले जीव ही नरकमे जाते हैं। लिखा भी है-व्यूतं च मासं च सुर्रा च वेश्य पापर्द्धिचोरीपरदारसेवाम् । सेवन्ति सप्तव्यसनानि लोकाः घोरातिघोरे नरके प्रयान्ति ॥
अर्थ- जुआ खेलना, मांस भक्षण करना, मापान करना, बेश्या सेवन करना, शिकार खेलना,
चोरी
करना और परस्त्री सेवन करना ये सात व्यसन कहलाते हैं। जो पुरुष इन सातों व्यसनोंका था इनमेंसे किसी भी व्यसनका सेवन करते हैं वे घोरसे भी महाघोर नरकमें जाते हैं। इन व्यसनोंके सेवन करनेका ऐसा ही नरक में जाना ही फल है।
कोई-कोई कहते हैं कि हम तो तोर्थोपर स्नान करके अथवा और कोई पुण्य कार्य करके इन व्यसनोंसे उत्पन्न हुए पापोंको धो डालते हैं सो उनका यह कहना भी ठीक नहीं है। क्योंकि इसका उत्तर पहले अनेक इलोकोंका प्रमाण वेकर अच्छी तरह बसला चुके हैं। तथा प्रसंगानुसार थोड़ासा यहाँ भी लिखते हैं। भारत में लिखा है-
मृदो भारसहस्त्रेण जलकुम्भशतेन च । न शुद्धयन्ति दुराचाराः तीर्थस्नानशतैरपि ॥ १ ॥ कामरागमदोन्मत्ताः स्त्रीणां ये वशवर्तिनः । न ते जलेन शुद्धयन्ति स्नानतीर्थशतैरपि ॥२॥
1
अर्थ- जो पुरुष दुराचारी है वह अपनी शुद्धताके लिये यदि हजार भार प्रमाण मिट्टी अपने हाथ पैर आदि सब शरीरसे लगावे और फिर गंगा, यमुना, सरस्वती आदि नदियोंके पवित्र जलके सैकड़ों घड़े भरकर स्नान करे तो भी वह शुद्ध नहीं होता । दुराचारी सेकड़ों तीर्थस्थानोंसे भी शुद्ध नहीं हो सकते । इसी प्रकार जो लोग कामके रागसे मदोन्मत्त हो रहे हैं और जो सदा स्त्रियोंके वशीभूत रहते हैं ये पुरुष न तो जलसे शुद्ध होते हैं और न सैकड़ों तीर्थस्नानोंसे शुद्ध होते हैं। दुराचारो लोगों को ऐसा ही महापाप लगता है जो तोके स्नानसे भी नहीं छूट सकता । फिर भला वह पाप दूसरी जगह कहाँ छूट सकता है ? अर्थात् वह पाप कहीं नहीं छूट सकता ।
[ ४