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सागर
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इस प्रकार और भी अनेक पुराणोंमें जीवोंकी हिंसा करने और गांव मग
में दोष बतलाये हैं। तथा स्थान-स्थानपर इनके त्याग करनेका उपवेश दिया है। इसलिये सत्पुरुषोंको इन दोनोंका त्याग कर देना ही उचित है। जो निर्दयी, नीच, शूद्रोंके समान विषयों के लंपटी, महापापोंके द्वारा अधोगतिको जानेका नाश करनेवाले और पापोंको बढ़ानेवाले लोग अनेक प्रकारको बातें बनाकर जीवहिंसा करने, मांस भक्षण करने, मद्यपान करने, शहद खाने तथा और भी महापापोंका आचरण करने में आनंद मानते हैं। और धर्मकी हँसी करते हैं वे महा अशुभ कर्मोका बंध कर नरकादि कुगतियोंमें चिरकाल तक परिभ्रमण करते रहते हैं ।
यहाँपर कदाचित् कोई यह कहे कि सब लोग सो ऐसा करते नहीं हैं। ग्राविणी संप्रवायके ब्राह्मण सो इसका नाम उच्चारण होते ही भोजनका त्याग कर प्रायश्चित्त लेते हैं। वे अपने धर्ममें इतने वृढ़ हैं। परन्तु कुछ संप्रदायवाले इनका ग्रहण करते हैं सो वे जुड़े हैं । सो उनका यह कहना भी ठोक नहीं है। क्योंकि यद्यपि द्राविड़ी आदि संप्रदाय के लोग इनका ग्रहण नहीं करते तथापि वे इनके ग्रहण करनेका उपवेश तो देते हैं, वेद, पुराण, ज्योतिष, वैद्यक, यंत्र, तंत्र, मंत्र आदि कार्यों में जीव हिंसाका उपदेश बेते हैं। यज्ञमें जीवोंके हवन करनेका तथा देवताओंको बलिदान देनेका उपदेश देते हैं। राजा आदि क्षत्रियोंको शिकार खेलना तथा मद्य, मांस, शहद आदिका सेवन करना उनका परंपरासे चला आया कुल घमं बतलाते हैं। इन सब पापको शास्त्रोक्त बतलाते हैं और उसमें धर्म बतलाते हैं। परन्तु उनका यह उपदेश देना उनके सेवन करनेसे भी बढ़कर है । जो अपने स्वार्थके लिये बकरे, भैंसा आदि पशुको मारता है वह अवश्य नरक में जाता है। तथा इनका उपदेश वेनेवाला इनके करनेवालोंसे बहुत अधिक पापो गिना जाता है ।
बहुत से लोग कहते हैं देवताओं की पूजाके लिये, पितरोंको तृप्त करनेके लिये, यज्ञमें होम करनेके लिये पशुओं की हिंसा करनी हिंसा नहीं कहलाती है। वे लोग ऐसे कार्यों में पशुओं को मारते हैं, उनके मांसको खाते हैं। और कहते हैं कि इसमें कोई पाप नहीं है। यह मांस नहीं है किंतु देवताओंका प्रसाद है। ऐसा कहकर तथा उसे निर्दोष बताकर उपदेश देते हैं और फिर उसमें शास्त्रोंको साक्षी बतलाते हैं जैसा कि शाई गघर कथित सुभाषित संहिता तीसवें परिच्छेबमें लिखा है
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