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सावर ४३२ ]
इन्स्टी
कितने ही मुसलमान या चांडालादिक तीच शूत्र हिंसा करते हैं मद्य, मांसका सेवन करते हैं और अपने कुमतिज्ञान या कुश्रुतज्ञानके बलसे उस मद्य, मांसाविकके सेवनको ठीक बतलाते हैं सो वे प्रत्यक्ष अधोगामी हैं इसमें किसी प्रमाणको आवश्यकता नहीं है ।
कदाचित् यहाँपर कोई मुसलमान यह कहे कि "तुम लोग खाते-पीते हो क्या उसमें जीवोंकी हिंसा नहीं होती ? सो भी कहना मिथ्या है क्योंकि इसका उत्तर पहले बहुत कुछ दिया जा चुका है। तथा फिर भी अत्यन्त संक्षेपसे इसका उत्तर यह है कि इस संसारमें जीव दो प्रकार हैं। एक तो ऐसे हैं जिनमें जीवकी सत्ता जीवके प्राण वा जीवका स्वरूप प्रत्यक्ष दिखाई पड़ता है ऐसे जीवोंको त्रस जीव कहते हैं। तथा दूसरे ऐसे हैं जिनमें जीवको सत्ता वा स्वरूप केवल अनुमानसे जाना जाता है बाहरसे ये अजीबसे ही दिखाई पड़ते हैं । ऐसे जीवोंको एकेन्द्रिय जीव कहते हैं। ये एकेन्द्रिय जीव पसे, पुरुष, फल आबिक जलसे उत्पन्न होते हैं इसलिये ये माता के दूषके समान ग्रहण करने योग्य वा खाने योग्य समझे जाते हैं। तथा पशु, पक्षी, मछली, मनुष्य आबिक जीव स जीव है जो माता-पिता रुधिर, वीर्य ने उत्पन्न होते हैं। जिनको तुम लोग पेशाब से उत्पन्न होना बतलाते हो । सो ऐसे स्त्रीके दूधके समान अग्राह्य वा स्याग करने योग्य अभक्ष्य बतलाये है। जिस प्रकार स्त्रियोंके दूधकी अपेक्षा माता और स्त्रोका दूध समान है तथापि माताका दूध पीने योग्य है और स्त्रीका दूध पीने योग्य नहीं है। उसी प्रकार जीवत्वकी अपेक्षासे जीव एक हैं तथापि उनकी उत्पत्तिमें अन्तर होनेसे तथा वृक्ष आविक एकेन्द्रिय जीवोंके शरीरकी मांस, संज्ञा न होनेसे वे ग्रहण करने योग्य वा भक्ष्य कहे गये हैं। जिस प्रकार गायके दूध और गायके मांसमें अन्तर है जिस प्रकार मनुष्य के विष्ठा और गायके गोबर में अन्तर है उसी प्रकार नस और स्थार जीवोंमें भी अन्तर है। मांस भक्षण स्त्रीके दूधके समान ग्रहण करने योग्य नहीं है पेशाब से उत्पन्न होने के कारण नापाक वा अपवित्र है । जिस पैशाबके लगनेसे किया हुआ रोजा भी नहीं लगता उस पेशाब से बने हुये मांस भक्षण करनेसे भला पवित्रता कहाँ रह सकती है ।
Sternal) (2) Samia 25 perat
- इस प्रकार अन्य शास्त्रोंके प्रमाण देकर मसिके अनेक दोष बतलाये। आगे जैन शास्त्रोंके अनुसार इसका विचार करते हैं। श्री वसुनन्दिश्रावकाचार में लिखा है
hi अमेझसरिसं किमिकुलभरियं दुगं विभत्थं । पाणवि णत्थि वे उ जंण नीरए स कह भोतु ॥
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