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को मिट्टीसे मान कर ऊपरसे गंगा जलसे षोते हैं इस प्रकार उसे ऊपरसे साफ कर लेते हैं तथापि उसके भीतर
को अशुद्धता कभी जाती नहीं वह मन भरा हुआ घड़ा मांजने और गंगाजलसे धोनेपर भी कभी शुद्ध नहीं हो। पर्चासागर
सकता। उसी प्रकार मद्य, मांस आदिका सेवन करनेवाले पुरुष जनेऊ पहिनने वा गंगाजलसे स्नान कर लेनेपर PM] भी कभी शुद्ध नहीं हो सकते।
इन लोगोंको विरुद्धता कहां तक कही जाय देखो जिस मुखसे तुलसी और शालिगरामका चरणामृत लेते हैं और फिर उनके भोगका महाप्रसाद भी खाते हैं और फिर उससे अपनी अच्छी गति भी पाहते हैं सो यह बड़ा अनर्थ है । देखो इस समय भी लोक परम्पराके अनुसार वृद्ध पुरुष भूठ बोलनेवालोंसे कहा करते हैं। कि जिस मुखसे खांडबाई जाती है उस मखसे क्या पलि खानी चाहिये। सो उनका यह कहना सत्य है।
क्योंकि जिस मुखसे तुलसोका चरणामृहसेना उसो मुरबसे क्या मांस खाना और पच पोना योग्य है ? और । उस मांस भक्षण करने तथा मद्यपान करनेमें धर्म मानना अधोगतिका कारण नहीं है । अवश्य हो ऐसे लोगोंको । । नरमादिगा लगोगति पाण होती है।
यहाँपर कदाचित् कोई मह कहे कि गति तो मुसलमान, जैनी वा वैष्णव तीनोंकी नहीं हो सकती। ये लाग चाहे तो मद्य-मांसादिकका सेवन करें अथवा उसका त्याग करें, तथापि तीनों हो नरकके पात्र हैं। सो हो लिखा है। म्लेच्छा ध्यानं दया जैनी भक्तिर्भागवता जनाः ।।
प्रयोपि नरकं यान्ति हिंसा अशुचि निन्दनात् ॥ अर्थ-सलमान आदि म्लेच्छ लोग तो ध्यानको मुख्य मानते हैं । एक दिनमें पांच बार नमाज पढ़ते है तो भी वे जीयोंको हिंसा करनेसे नरक में जाते हैं। जीव हिंसाके कारण उनका ध्यान भी कुछ काम नहीं करता । जैनी लोग क्या पालन करते हैं परन्तु एक अपवित्रताके पापसे वे भी मरक जाते हैं। इसी प्रकार भागवती वैष्णव पुरुष नारायणको भक्ति करते हैं तथापि परनिन्दाके पापसे घे भी नरकके पात्र कहे जाते हैं।
इस प्रकार मुसलमानोंके ध्यानके फल तो हिंसा करनेसे निरर्थक हो जाता है, जैनियों को क्या पालनेका शुभ फल १ मलिनताके दोषसे व्यर्थ हो जाता है और वैष्णवोंकी भक्तिका फल परनिन्दासे मिथ्या हो जाता है। इस प्रकार ।