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र कहलाता है। उनका सिद्धांत है कि यदि किसी चूहेको बिल्ली मारे अथवा कोई जीव अपने आहारके लिये किसी जीवको मारने के लिए कई अथवा मार और उसको कोई छुड़ाये तो उसको अठारह प्रकारके पाप लगते
हैं। इसलिये दया-धर्म पालन करनेवालेको ऐसे पकड़े हुए जीव नहीं छुड़ाने चाहिये। ऐसा उन तेरहपंथियोंका पर्चासागर
श्रद्धान है । तथा इससे मिलता-जुलता तुम्हारा श्रद्धान हो जाता है क्योंकि पूजा, अभिषेक आविमें जो थोड़ासा आरम्भ जनित पाप होता है तुम उनके करनेका हो निषेध करते हो ? इसलिये तुम्हारा श्रद्धान, ज्ञान, आधरण तेरहपंथियोंका-सा समझा जाता है।
प्रश्न-कदाचित् यह कहो कि उस पकड़े हुए जोवको छुड़ाना उसके प्राणों की रक्षाके लिये और उसको अभयदान देने के लिये है । क्योंकि पहले उस जीवको छुड़ाने में थोड़ी-सी मारकूट आदि अशुभ कार्योंसे थोड़ा-सा पाप होता है । परन्तु उससे बहुत अधिक नया-धर्म उत्पन्न होता है। तो इसका उत्तर वा समाधान यह है कि यहाँपर पूजा, अभिषेक आदि कार्यों में भी अपनो इन्द्रियोंके विषय-भोग पुष्ट नहीं किये जाते किन्तु भगवानका। स्तोत्र करने, णमोकारादि मन्त्रोंका पाठ करने, भगवान के सामने अनेक प्रकारको भक्ति, ध्यान, वन्दना आदि करनेसे महापुण्य उत्पन्न होता है तथा अनेक जन्मोंके पाप नष्ट हो जाते हैं फिर भला इन कार्योका निषेत्र क्यों करना चाहिये । देखो णमोकार मंत्रके पाठ मात्रसे सब पाप दूर होते हैं ऐसा शास्त्रों में लिखा है। यथा'एसो पंच णमोपारो सव्य पावप्पणासणो।' इसलिये भगवान अरहन्तदेवको आजाको भंग करनेवाला मिथ्यात्वरूप खोटे भवानको छोड़कर जैनशास्त्रोंके अनुसार श्रद्धान करना चाहिये। तभी सच्चा श्रवानी कहलाता है। केवल अपने मुखसे अपनी स्तुति करने और दूसरे किसीकी भी बात न माननेसे कुछ नहीं होता है । जो दूसरेके । द्वारा स्तुति की जाती है वही सच्चो समझी जाती है।।
इस ऊपरके कथनको सुनकर कोई बहुत चतुर वृद्ध पुरुष कहने लगा कि आपने अनेक शास्त्रोंका प्रमाण दिया तथा अनेक वृष्टांतोंसे सिद्ध किया सो इन सब शास्त्रोंको घा उदाहरणोंको हम भी जानते हैं परन्तु । हम इनमेंसे किसोको मानते नहीं। हमारे अनुमान ज्ञानमें जो सिख हो जाय उसे तो हम मानते हैं बाकी किसी
को नहीं मानते । ऐसे चतुर वृद्धके लिए उत्तमरूप वा समाधानरूप कहते हैं कि तुम सब शास्त्रोंके प्रमाणोंको । । जामते हो परन्तु मानते नहीं सो यह मानना तो सरासर मिथ्या और असत्य है। देखो पहले लंकाधिपति